SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 192
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६८ आनन्द प्रवचन : भाग १० ने भी अपने गुरुदेव से प्रार्थना की- "गुरुदेव ! मुझे भी आमरण अनशन ( संथारा ) करने की आज्ञा दीजिए ।" गुरु ने स्नेहपूर्वक कहा - " वत्स ! अभी तुम इसके योग्य नहीं हो ।" शिष्य - " तो गुरुदेव ! मैं कब इसके योग्य हो जाऊँगा ?" गुरु ने उत्तर दिया – “पहले बारह वर्ष तक तप करके साधना करो, अपनी आत्मा को वश में करो, तब तुम इसके योग्य बन जाओगे ।" 'बहुत अच्छा, गुरुदेव !' कहकर उस साधु ने लम्बे-लम्बे उपवास करने शुरू कर दिये । इस प्रकार बारह वर्ष तक उग्रतप करने से उसका शरीर सूखकर काँटा हो गया । शरीर केवल हड्डियों का ढाँचा मात्र रह गया । उठते-बैठते समय हड्डियाँ कट-कट आवाज करने लगी । शिष्य ने उचित अवसर देखकर गुरुजी के पास आकर सविनय निबेदन किया- "गुरुदेव ! मैंने आपके निर्देशानुसार १२ वर्ष तक उग्रतप की साधना कर ली है। अब तो मैं संथारा करने के योग्य हो गया हूँ, अतः अब मुझे उसकी आज्ञा दीजिए ।" गुरु ने कहा - " तुमने १२ वर्ष उग्रतप तो किया, परन्तु अभी संलेखना संथारे के योग्य होने में कसर है ।" "अब क्या कसर रह गई है, गुरुवर !" यों कहते हुए उस साधु ने चट से उँगली मोड़कर तोड़ डाली । गुरु ने उसे प्रेम से समझाते हुए कहा - " वत्स ! तूने उग्रतप से अपने शरीर को तो खूब सुखा डाला । वह तो सिर्फ अस्थिपंजर मात्र रह गया है । पर अभी तक ( शरीर में बैठे हुए) राग-द्वेष, विषय-वासना, कषाय, आदि जो विकार कर्मशत्रुओं के जनक हैं, उन्हें तू नहीं सुखा पाया । और संलेखना संथारे में उन्हें सर्वप्रथम सुखा डालना पड़ता है । इसीलिए मैंने कहा कि तू अभी संथारे के योग्य नहीं बना ।" तात्पर्य यह कि संथारे के उम्मीदवार उस साधु ने उग्रतप तो बहुत किया । किन्तु उसके साथ क्षान्ति जीवन में न आई । क्रोध और रोष उसके जीवन में था, ईर्ष्या और देखा-देखी विद्यमान थी, योग्यता न होते हुए भी संथारा करके फलप्राप्ति की उतावली उसमें थी, वह अपनी तपःशक्ति को पचा नहीं पाया था, इसी कारण उसके गुरु उसे अभी संथारे के अयोग्य समझते थे । उग्रतप की शोभा शरीर को केवल सुखा देने में नहीं है, शरीरस्थ उपद्रवों, राग-द्वेषादि विकारों को तपाकर क्षान्ति से जीवन को सुसज्जित करने में है । अन्त में वह शिष्य भी समझ गया कि उग्रतप की शोभा क्षान्ति में है, अतः वह पुनः विषय कषायों को कृश करने की साधना में जुट गया । उग्रतप के साथ क्रोधादि हों तो उग्रतप के साथ क्षान्ति के बदले क्रोध, अहंकार, असहिष्णुता, असमाधि, अधीरता आदि का होना तप का अजीर्ण है । उग्रतप के साथ क्रोध होने से वर्षों का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy