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उग्रतप की शोभा : क्षान्ति-२
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क्रूरता, प्रसिद्धि-लालसा, यशोलिप्सा, सम्मान-कामना, शाप, आक्रोश, मारण, मोहनउच्चाटन आदि निन्द्य प्रयोग, फलाकांक्षा की उतावली, प्राप्त सिद्धियों या लब्धियों का दुरुपयोग आदि अनिष्ट जीवन में घुस जाय तो उग्रतप बिगड़ जायगा, उसकी सारी शोभा मटियामेट हो जायगी, इतना सब किया-कराया गुड़-गोबर हो जायगा, . सारा ही काता-पीजा कपास हो जायगा। जिसका तप बिगड़ा, जो तपोभ्रष्ट हुआ, उसका जीवन बिगड़ते या भ्रष्ट होते देर नहीं लगती।
जिस उग्रतप के साथ सहनशीलता, क्षमा, नम्रता, निरभिमानता, क्षान्ति आदि न होंगे, वह केवल शारीरिक कष्टदायक ताप बन जायेगा, उससे आत्मिक शक्ति प्राप्त न हो सकेगी। भले ही उससे कुछ भौतिक उपलब्धियाँ प्राप्त हो जायें, पर वे प्रायः उसके पतन का ही कारण बनेंगी।
क्षान्ति के सात अंग : उग्रतपस्वी के आभूषण क्षान्ति के विभिन्न अर्थों के सम्बन्ध में मैं 'बुधजन होते क्षान्तिपरायण' नामक तीसरे जीवनसूत्र पर प्रवचन करते समय कह गया हूँ। संक्षेप में, क्षान्ति के ये सात अर्थ यहाँ प्रतिफलित होते हैं, जो उग्रतप के साथ संगत हैं
(१) क्षमा-क्रोधादि कषायों का न होना। (२) सहिष्णुता-परोषह, उपसर्ग, कष्ट, विपत्ति, संकट आदि सहना । (३) सहनशीलता-निन्दा, गाली, अपमान, ताड़न-तर्जन, प्रहार आदि सहन
करना। (४) क्षमता-सिद्धियों, लब्धियों आदि की पचाने की सामर्थ्य । (५) तितिक्षा-प्रतिकूलता, परिस्थिति की विपरीतता, विघ्न-बाधाएँ उप
स्थित होने पर समभाव से सहना । (६) समाधि-मन, वचन और काया के योगों-व्यापारों का सन्तुलन न
खोना, मस्ती में रहना। (७) धीरता-फलाकांक्षा, सुखभोगाकांक्षारूप निदान, फल-प्राप्ति की उतावली ___ न करना।
उग्रतप के साथ क्षान्ति के क्षमा आदि सातों अंगों का तपस्वी जीवन में होना आवश्यक है । ये सातों अंग उग्र तपस्वी के आभूषण हैं। जब उग्रतप के साथ क्षमा आदि गुण नहीं होते तो वह उग्रतप केवल कायक्लेश रह जाता है, उससे आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त नहीं होती।
एक उदाहरण द्वारा मैं इसे समझाने का प्रयत्न करूंगा
एक जैन साधु ने आमरण अनशन (संथारा) ग्रहण किया। भक्तों ने जब यह सुना तो वे उनका सम्मान बढ़ाने के लिए दौड़े आये। दर्शनार्थियों का जमघट लग गया। लोगों की भीड़ और उस साधु की बढ़ती हुई प्रतिष्ठा देखकर एक अन्य साधु
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