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________________ उग्रतप की शोभा : शान्ति–२ १६५ उग्रतपःशक्ति का अचूक प्रभाव उग्रतपस्वी की तप-शक्ति का प्रभाव अदृश्य प्रकृति पर भी पड़ता है। प्रकृति के तत्त्व भी उसकी अव्यक्त रूप से सहायता करते हैं, उसके अनुकूल हो जाते हैं। एक दिन उदयपुर के राजपथ पर एक अभिग्रहधारी उग्रतपस्वी साधु हाथ में झोली लिए जा रहे थे। प्रतिदिन वे इसी तरह झोली में पात्र डालकर नियत समय पर चल पड़ते थे और घूम-फिरकर उसी हालत में वापस अपने स्थान पर लौट आते थे। इस तरह निराहार रहते हुए उन्हें ४४ दिन हो गये थे। आज ४५वाँ दिन था। यह महान उग्रतपस्वी जीवन की बाजी लगाये कर्मों से युद्ध कर रहे थे । आज भी मुनि सदा की भाँति शान्तमुद्रा से बढ़ते हुए मुख्य राजपथ पर आ गये थे। इसी समय महाराणा का एक हाथी बिगड़ उठा और वह बन्धन तोड़कर महलों से बाहर निकल भागा। राज्य के सिपाही चिल्लाते हुए दौड़ रहे थे कि सावधान ! मतवाला हाथी आ रहा है । हाथी चिंघाड़ता हुआ उसी मार्ग पर दौड़ा चला आ रहा था, जिस मार्ग पर सामने से उग्रतपस्वी मुनि आ रहे थे । देखते ही देखते दोनों आमने-सामने हो गये । लोग अपने-अपने घरों की छतों से यह भयानक दृश्य देख रहे थे। उन्होंने हाथी के सामने मुनि को देखकर समझा-'अब इनका जीवन बचना कठिन है, हाथी अभी इन्हें पैरों तले कुचल देगा।' परन्तु हुआ कुछ और ही, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। वह मदोन्मत्त हाथी मुनि को सामने देख विलकुल धीमा और शान्त हो गया। वह इधर-उधर नजर डालते हुए आगे बढ़ता रहा, उसका नशा गायब हो चुका था। हाथी एक हलवाई की दुकान के आगे खड़ा हो गया। बेचारा हलवाई तो भय के मारे अन्दर घुस गया। मुनिराज भी तब तक हलवाई की दुकान के पास आ गये थे। हाथी ने अपनी संड से हलवाई की दुकान से लड्डुओं से भरी टोकरी उठाई और मुनिजी के सामने रख दी। मुनि ने अपना अभिग्रह पूर्ण होता देख झोली में से पात्र निकालकर हाथी के सामने कर दिया। हाथी ने कुछ लड्डू उनके पात्र में डाल दिये। मुनिजी ने अपनी झोली उठाई और हाथी की ओर एक हाथ ऊपर उठाकर धर्मलाभसूचक मुद्रा करके अपने स्थान की ओर लौट चले । हाथी कुछ देर तक मुनि को देखता रहा फिर वह भी महलों की ओर लौट गया। वह मुनि थे—उग्रतपस्वी स्वामी श्री रोड़ीदासजी महाराज, जिन्होंने जीवन की बाजी लगाकर एक दिन यह अभिग्रह (दृढ़ संकल्प) कर लिया था कि 'महाराणा का हाथी अपनी सूंड से मुझे आहार देगा, तभी मैं आहार ग्रहण करूंगा। अन्यथा, ६० दिनों तक निराहार ही रहूंगा।" उनका यह अभिग्रह रूप उग्रतप ४५वें दिन पूर्ण हुआ। बन्धुओ ! यह है उग्रतप की शक्ति और उसका प्रत्यक्ष प्रभाव ! उग्रतप से क्या नहीं प्राप्त हो सकता 'तपः सर्वार्थसाधनम्' (तप समस्त अर्थों का साधक है) कहकर आचार्यों ने उग्रतप की महान शक्ति और गरिमा को ध्वनित कर दिया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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