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________________ १६४ आनन्द प्रवचन : भाग १० आखिर उसके निर्बल मन ने अशक्ति को जिताया और प्रातः होते ही वह चल पड़ाश्रमण भगवान महावीर के पास, सभी उपकरण लेकर मुनिदीक्षा के इस उग्रतप तथा घोर कष्ट सहने से छुटकारा पाने हेतु ! भगवान के निकट पहुँचते ही उन्होंने उसके चेहरे और रंगढंग से ही जान 'लिया कि मेघकुमार संयम और तपोमय जीवन से ऊब गया है, अशक्ति का आवरण ओढ़कर वह इससे पलायन करना चाहता है। अतः उन्होंने मेघमुनि से कहा""मेघ ! ऐसी क्या बात हो गई, जो तुम जरा से कष्ट से विचलित हो गये ?" मेवकुमार ने विनयपूर्ण शब्दों में कहा-"बस, भगवन् ! मुझे पता नहीं था कि इतनी कठोर उग्रतप और कष्ट-सहन से मेरी परीक्षा होगी। मुझसे इतना कष्ट नहीं सहा जाता , इतना उग्रतप करने में मैं अपने को असमर्थ पाता हूँ।" ___ भगवान महावीर ने मेघमुनि को धर्मस्नेहपूर्वक आत्मा की अनन्त शक्ति का परिचय देते हुए तथा उसने पूर्वजन्म में हाथी के रूप में जिस शक्ति का परिचय दिया था, उसे बताते हुए कहा-'मेघ ! हाथी के भव में तुमने एक खरगोश की दया के लिए २० पहर तक अपना एक पैर ऊपर का ऊपर रखा था, उस समय तुममें शक्ति कहाँ से आ गई थी ? उसी के फलस्वरूप तुम राजकुमार बने और कल मुनि बने, अब तो तुममें अधिक शक्ति प्रगट करने की क्षमता होनी चाहिए। घबराओ मत, अभ्यास से सारी शक्तियाँ प्रकट हो सकती हैं । शक्ति सहिष्णुता और धैर्य रखने से प्रगट होती है।" भगवान महावीर द्वारा किये गये युक्तिपूर्ण समाधान से मेघमुनि का मन, तप और संयम में स्थिर हो गया। उसने अपने आपको, सर्वतोभावेन समर्पण करके उग्रतप एवं संयम-पालन में अपनी शक्ति लगा दी। फिर कभी उसने उग्रतप की शक्ति न होने की शिकायत नहीं की। सारांश यह है कि आत्मा में निहित अनन्तशक्ति को प्रकट करने के लिए धैर्य, साहस और सहिष्णुता और तितिक्षा के साथ अभ्यास करना अभीष्ट है । उग्र से उग्र तप करने की शक्ति अभ्यास से आ जाती है। शक्ति का स्रोत अन्दर है, वह बाहर से कहीं से प्राप्त होने वाली नहीं है। वह अन्दर से ही प्रकट होगी, होना चाहिए उस अन्तनिहित शक्ति के स्रोत से उग्रतप आदि द्वारा शक्ति खींचने का बारबार प्रयत्नं । स्वयं उग्रतप से अनेक शक्तियाँ, लब्धियाँ एवं सिद्धियां प्राप्त हो जाती हैं । उग्रतप से साधक का मनोबल, क्षमता, सहनशक्ति बढ़ जाती है। उग्रतपस्वी में इतनी शक्ति आ जाती है कि वह दुर्जेय विषय-कषायादि पर सहज ही विजय पा लेता है और इसी लोक में क्षमा, शान्ति, कष्टसहिष्णुता आदि विशिष्ट गुणों को प्राप्त कर लेता है । बड़ी कठिनता से जीते जा सकने वाले क्रोधादि कषायों और पंचेन्द्रिय-विषयरूपी उद्भट चोर उग्रतप रूपी सुभट के द्वारा बलपूर्वक प्रताड़ित होकर नष्ट हो जाते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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