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________________ उग्रतप को शोभा : शान्ति–२ १६३ उग्रतप की शक्ति में शंकित मेघमुनि का समाधान मुनि मेघकुमार भी एक दिन उग्रतप की, या यों कहिए तीव्र कष्ट सहन की अपनी शक्ति पर शंकित हो गया था। अपनी तप-संयम की शक्ति पर उसका विश्वास डगमगा गया था। बात यों बनी कि जब मगध सम्राट श्रेणिक का लाड़-प्यार में पला-पुसा सुकुमार और विलासिता में जकड़ा हुआ मेघकुमार संसार से विरक्त होकर जैन मुनि के रूप में दीक्षित हो गया तो पहली रात्रि नवदीक्षित मुनि का शयनासन क्रमशः सब मुनियों के अन्त में मकान के द्वार के पास लगाया गया। रात्रि में अँधेरा होने के कारण मुनि लोग जब लघुशंका के लिए या स्वाध्याय या चिन्तन करने बाहर जाते तो सहज ही किसी के पैरों का स्पर्श हो जाता था। कई साधुओं के पदाघात के कारण उनकी नींद उचट गई । वे रात भर में बहुत ही थोड़ी नींद ले पाये। __ मेघकुमार ने कभी रूखा भोजन नहीं किया था, पर आज दीक्षा के बाद उसे रूखा भोजन मिला, कोमल शय्या के बदले भूमि पर सिर्फ एक शयनासन बिछाने को मिला। राजकुमार था तो नौकर-चाकरों की कोई कमी न थी, पर आज अपना सारा ही काम हाथ से करना पड़ा था; इतना ही नहीं, अन्य बड़े साधुओं की भी विनय की दृष्टि से सेवा-शुश्रूषा में लगा रहना पड़ा। पहले तो मेरे साथ इतना अधिक स्नेह से सब साधु-सन्त बोलते थे, पर आज तो मैं देख रहा हूँ मुझे शास्त्र स्वाध्याय तथा अन्याय क्रियाओं में लगाये रखकर मुझसे अधिक बोलते भी नहीं, मुझे भी अधिक बोलने से इन्कार कर दिया । और मैं पहले राजकुमार होने के नाते स्वतन्त्र रूप से कहीं भी घूम सकता था, मनोरंजन कर सकता था, पर यहाँ तो सिवाय भिक्षाचारी के और अभी तो भिक्षा लाने की भी मनाही करके मेरा घूमना-फिरना भी बन्द कर दिया । कहाँ वह आजादी थी, कहाँ आज पिंजरे के पंछी की तरह एक स्थान में बन्द ! मेघकुमार का मन और उत्तेजित हो गया, साधुओं के द्वारा अनजाने में हुए रात्रिकालीन व्यवहार से ! उसकी महत्त्वाकांक्षाएँ सिर पीटने लगी. उसका अहंकार बार-बार क्रोधमिश्रित होकर सर्प की तरह फुफकारने लगा- 'अरे मूर्ख मेघ ! कहाँ स्वतन्त्रता और जीवन के सुखोपभोगों से भरा जीवन छोड़कर आ फंसा इस परतन्त्रता की संकीर्ण कोठरी में ? जहाँ सारे ही सुखों से वंचित कर दिया गया तुझे ! छोड़ दूंगा मैं इस बन्धन को ! उतार फैकुंगा सुबह ही झूठी विरक्ति के इस वस्त्र को ! सुबह होते ही सारे उपकरण भगवान (महावीर) को सौंपकर मैं अपने घर चल दूंगा । मेरी शक्ति नहीं है, इतनी उग्र तपस्या करने की ? मेरा बलबूता नहीं है, कष्टों से भरे हुए संयम का बोझ उठाने का ! मैं नहीं चाहता, ऐसे परतन्त्र जीवन में रहना, जहाँ मेरी शक्ति से बाहर काम लिया जाता हो । अपनी शक्ति इन निकृष्ट कार्यों में लगाने में मुझ रस नहीं है।' मेघमुनि के मन में आत्मा की शक्ति और अशक्ति का द्वन्द्व युद्ध चलने लगा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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