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________________ १६२ आनन्द प्रवचन : भाग १० रोक लेते थे, दोनों मोटरें एक इंच भी आगे नहीं बढ़ सकती थी। वे अपनी छाती पर ढाई मन का पत्थर रखवाकर हथौड़े से तुड़वाते थे, लेकिन उनके शरीर में इतनी शक्ति थी कि उनका जरा भी बाल बांका नहीं होता था। अपनी छाती पर वे तख्ता रखकर हाथी को भी चारों पैरों से खड़ा करवा लेते थे। यह अपूर्व शारीरिक शक्ति उनमें कहाँ से आई ? अभ्यास से ही तो। अगर प्रोफेसर राममूर्ति में अपनी शक्ति बढ़ाने का उत्साह, रुचि और साहस न होता, वे अभ्यास न करते तो क्या इतनी आश्चर्यजनक शक्ति उनमें बढ़ सकती थी? कदापि नहीं। श्री आचार्य सर्वे ने मानव की क्षमता का बहुत ही सुन्दर शब्दों में वर्णन किया है है असीम क्षमता मनुष्य में, जो चाहे वह ही बन जाए। पौरुष जागे पार्थ बने नर, मन का अंधियारा मिट जाए। भरी अथक संघर्ष-शक्ति है, सहिष्णुता-विश्वास कहाँ है । और कहो, सन्तुलित-समन्वित, जीवन का आवास कहाँ है ? मानव की असीम शक्ति का कितना सुन्दर निरूपण कवि ने कर दिया है। हाँ तो, रानी की बात पर राजा गुस्से में आकर आपे से बाहर हो गया। उसने रानी को अहंकारिणी और बातूनी कहकर राजमहल से बाहर निकाल दिया और कहा-"अपनी बात सिद्ध करके बताओगी तभी राजमहल में प्रवेश पा सकोगी।" रानी का आत्मविश्वास सुदृढ़ था। उसने एक गाँव में जाकर गोपालक के यहाँ अपना डेरा डाला। गोपालक की गाय ब्याही, तब उसकी बछड़ी को वह अपनी पीठ पर उठाकर चलने और जीनों पर चढ़ने का क्रमशः अभ्यास करने लगी । चार वर्षों तक उसका यही क्रम रहता था। एक दिन वह बछड़ी गाय जितनी बड़ी हो गयी, फिर भी वह रानी अपनी पीठ पर उठाकर जीने की कई सीढ़ियाँ चढ़ जाती थी। जब अभ्यास पक्का हो गया तो उस गोपालक के द्वारा राजपरिवार को खासकर राजा को उस गाँव में होने वाले तमाशे में पधारने का आमंत्रण दिया गया। राजा राजपरिवार एवं दरबारियों के साथ पहुंचे । रानी ने पुरुष का वेश बना रखा था। कोई उसे पहचान नहीं सका। उस गाय को अपनी पीठ पर उठाकर गाँव के महाजन की हवेली की ५० सीढ़ियाँ चढ़ी और वापस उतरी। सभी लोग उसकी शक्ति पर दाँतों तले उंगली दबाकर धन्य-धन्य बोल उठे। राजा उसे इनाम देने लगे, तभी पुरुषवेषी रानी ने राजा से एकान्त में मिलने की प्रार्थना की। राजा मिले तो उसने अपना परिचय देकर कहा-"अभ्यास से प्रत्येक असम्भव दिखायी देने वाला कार्य सम्भव हो सकता है, यह बात मैंने सिद्ध कर दी है।" राजा ने खुश होकर राजमहल में सम्मान के साथ प्रवेश कराया । उन से उग्र तप करने की शक्ति भी इसी तरह अभ्यास से आ जाती है, स्वतः प्रस्फुटित हो जाती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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