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आनन्द प्रवचन : भाग १०
मनुष्य जीवन को इन्द्रियविषयन्भोगों और कषायों की उधेड़बुन में ही समाप्त कर दिया तो फिर आँखें मैंद जाने के बाद पता नहीं, ऐसा मौका मिलेगा या नहीं ? कौन ऐसा मूर्ख होगा जो प्राप्त रत्न को कौए उड़ाने में फेंककर भविष्य रत्न प्राप्त हो जाने की दुराशा करेगा।
मनुष्यजन्मरूपी रत्न उग्रतप करने के लिए मिला है, उसे यों ही विषयवासनाओं के कौए उड़ाने में फेंककर भविष्य में उग्रतपश्चरण कर लेने की दुराशा में बैठा रहेगा ? आपको प्रतिदिन यह मनोरथ करना है कि मुझे सौभाग्य से उग्रतप करने का शुभ अवसर मिला है, इस अवसर को हाथ से न जाने दूं, इसका जितना भी लाभ लिया जा सके ले लूँ । एक आचार्य ने कहा है
स्थाल्यां वैदूर्यमण्यां निपचति तिलखलं चान्दनैरिन्धनौधैः । सौवर्णांगला विलिखति वसुधामर्कतूलस्य हेतोः ॥ छित्त्वा कर्पूरखंडान् वृत्तिमिहि कुरुते कोद्रवाणां समन्तात् ।
प्राप्येमां कर्मभूमि न भजते तपो यो नरो मन्दभाग्यः ।
जो मूर्ख चन्दन की लकड़ियाँ जलाकर उनसे वैडूर्य मणि की तपेली में तिल ' की खली पकाता है, आक के तूल के लिए सोने के बने हुए हलों से जमीन जोतता है तथा कोदों के चारों ओर कपूर के टुकड़े करके उनकी बाड़ लगाता है, किन्तु वह कितना अभागा है कि इस कर्मभूमि को पाकर तप नहीं करता ।
__ सचमुच ऐसा उत्तम अवसर पाकर उग्रतप न करना दुर्भाग्य ही समझना चाहिए। एक जन्म की हार अनन्त जन्म की हार है। अतः जीवन की बाजी जीतने के लिये उग्रतप करना चाहिए।
उग्रतप करना इसलिये भी आवश्यक है कि सम्यग्दृष्टि या व्रती मानव शक्ति होते हुए भी यदि उग्रतप नहीं करता तो वह अपनी आत्मा को वैषयिक सुखों में फंसा कर अपनी शक्ति को छिपाता है। जो मनुष्य अपनी शक्ति को छिपाता है, उसे शक्ति प्राप्त होनी दुर्लभ है। विषय-सुखासक्त होने से मानव को असातावेदनीय कर्म का तीव्र बन्ध होता है, जिसके फलस्वरूप वह अनेक भवों में तीव्र दुःख भोगता है।
तीव्रतप ही संसार के महादाह से दग्ध होने वाले भव्यों के लिए जलगृह के समान शान्तिदायक होता है । जैसे प्रचण्ड सूर्य की किरणों से संतप्त मनुष्य का शरीरदाह धारागृह से शान्त हो जाता है, वैसे ही तीव्रतप विषय-कषायों के प्रचण्डदाह को शान्त कर देता है।
१. अप्पाय वंचिओ तेण होइ, विरियं च गृहियं भवति । सुहसीलदाए जीवो बंधदि हु असादवेदणीयं ॥
-भगवती आराधना १४५३ २. संसारमहाडाहेण डज्झमाणस्स होइ सीयघरं ।
सुत्तवो दाहेण जहा सीयघरं डज्झमाणस्स ॥ -भगवती आराधना १४६२
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