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________________ उपतप की शोभा : शान्ति–२ १५७ वह उग्रतपश्चरण कैसा हो, कसा नहीं ? खरा उग्रतप कौन-सा है, खोटा . कौन-सा ? इस विषय में मैं पूर्व प्रवचन में इसी जीवनसूत्र के सन्दर्भ में कह गया हूँ। यहाँ उसे दोहराने की आवश्यकता नहीं समझता। पाँचवीं बात उग्रतपश्चरण की उपयोगिता इसलिए भी है कि साधनाशील प्रत्येक व्यक्ति यह चाहता है कि उसका मरण-अन्तिम समय-सुधरे, अन्तिम समय में वह समाधिभावपूर्वक देह का त्याग करे, पण्डितमरणपूर्वक मृत्यु का स्वीकार करे। परन्तु अन्तिम समय में समाधिमरण के लिए समस्त कषायों, वासनाओं, इच्छाओं, अठारह पापस्थानकों, तथा चारों ही आहारों का त्याग करना आवश्यक होता है, वह पूर्वकालिक अभ्यास के बिना हो नहीं सकता । हो सकता है समाधिमरण के लिए किया हुआ संथारा (संल्लेखनापूर्वक आमरण अनशन) लम्बे समय तक चले । ऐसी स्थिति में यदि समाधिमरण के आराधक को पहले से उग्रतप करने का अभ्यास न होगा तो वह समाधिमरण के लिये किया जाने वाला संथारा नहीं कर सकेगा और इच्छा होते हुए भी समाधिमरण से वंचित हो जायेगा। जैसा कि भगवती आराधना में कहा गया है पुल्वमकारिवजोग्गो समाधिकामो तहा मरणकाले । ण भवदि परिसहसहो विसयसुहपरम्मुहो जीवो ॥१६१॥ बाहिरतवेण होदि उ सम्वा सुहसीलदा परिच्चत्ता। संल्लिहिदं च सरीरं ठविदो अप्पा य संवेगे ॥२३७॥ 'जो व्यक्ति समाधिमरण का इच्छुक है, किन्तु उसने पूर्वकाल में उतना तपश्चरण का अनुष्ठान नहीं किया है, वह मरणकाल में परीषह सहन नहीं कर सकेगा फलतः उसका मन विषयसुखों से विमुख नहीं हो सकेगा। तप-उग्रतप-से (इन्द्रियों और मन की) समस्त सुखशीलता का त्याग हो जाता हैं । बाह्यतप करने से शरीर संल्लेखना के उपाय की प्राप्ति होती है और आत्मा संवेग (संसारभीरुता) गुण में स्थिर होता है। ___ इन सब कारणों से उग्रतपः सम्यग्दृष्टि मानव के लिए अनिवार्य है। उग्रतप के प्राप्त हुए अवसर को चूकिए मत एक बात यह भी विचारणीय है कि आपको मानव-जीवन मिला है, पता नहीं, कितने जन्मों के बाद मिला है, और यह भी पता नहीं कि निकट भविष्य में पुनः मानव-जीवन अगले जन्म में मिलेगा या नहीं? ज्ञानी पुरुष के सिवाय कोई भी निश्चित रूप से कह नहीं सकता कि अगले जन्म में मैं मनुष्य ही बनूंगा। ऐसी स्थिति में जब अनायास ही आपको मानव-तन मिला है, पांचों इन्द्रियाँ मिली हैं, धर्म का बोध और धर्माचरण की शक्ति मिली है, सभी अंगोपांग यथावस्थित मिले हैं, शरीर स्वस्थ एवं सशक्त मिला है, तब अगर इस जीवन में उग्रतप करके कर्मबन्धनों को नहीं काटा जाएगा, तो फिर ऐसा उत्तम अवसर कब मिलेगा? अगर तप-त्याग के बदले Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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