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________________ १५६ आनन्द प्रवचन : भाग १० में, उसके अनुपात में सफाई करनी पड़ती है। वर्षों की पुरानी बीमारी हो तो वैद्य की एक ही दिन की दवा लेने से वह ठीक नहीं हो जाती है, बीमारी को मिटाने के लिए दवा भी उसी अनुपात में लम्बे समय तक लेनी पड़ती है । दीर्घतपस्वी श्रमण भगवान महावीर केवलज्ञान प्राप्त होने से पहले तक चार ज्ञान के धारक थे, फिर भी उन्होंने इतने लम्बे-लम्बे घोर उग्रतप क्यों किये थे ? उनकी आत्मा तो आपसे बहुत निर्मल थी। फिर भी उन्होंने आत्मशुद्धि के लिए जो दीर्घकाल तक उग्रतप किये, उसके पीछे क्या कारण था ? यही कारण था कि उनके पूर्वबद्ध कर्मों का जत्था बहुत अधिक था और आयुष्य बहुत ही थोड़ा, ७२ साल का था । इसलिए थोड़ी-सी आयु में अधिक बँधे हुए कर्मों का क्षय करने के लिए उन्होंने उग्रतप किये थे । और कोई अन्य कारण नहीं था, उनके द्वारा उग्रतप किये जाने का । उन्होंने कर्मों के रोग के अनुपात में एकाध दिन या मामूली सा तप करना पर्याप्त समझा, इसलिए दीर्घकाल तक उग्रतपश्चरण किया । इसी प्रकार कर्मों की बीमारी वर्षों पुरानी है, उसमें भी आपको तो इसी जन्म के किये हुए अपराधों या भूलों की स्मृति है, पूर्वजन्मों के भी कर्मदलिक प्रचुर मात्रा में होंगे, इसलिए उन कर्मदलिक रूप चिरकालिक रोग के निवारण के लिये चिरकालीन उग्रतप करना आवश्यक होगा । कुछ ही दिन या एकाध दिन उपवासादि दवा लेकर छोड़ देने से यह कर्मरोग जाने वाला नहीं । तीसरी बात यह है कि कई बार मनुष्य के निकाचित कर्मबन्ध हुए होते हैं । निकाचित कर्म मामूली तपस्या से या एकाध दिन के तन से नष्ट नहीं होते । उन्हें उग्रतप से उदीरणा करके भोगने पर ही उनसे छुटकारा हो सकता है, अन्यथा नहीं आराधनासार (७।२९) में स्पष्ट कहा गया है निकाचितानि कर्माणि तावद्भस्म भवन्ति न । यावत् प्रवचने प्रोक्तस्तपोवह्निनं दीप्यते ॥ 'निकाचित कर्म तब तक भस्म नहीं होते, जब तक प्रवचन ( शास्त्र - सिद्धान्त ) में ही हुई परूपी अग्नि दीप्त नहीं हो जाती ।' तात्पर्य यह है कि निकाचित रूप से बंधे हुए कर्मों को भस्म करने के लिए भी उग्रतप आवश्यक है । निकाचित कर्म - बन्ध का पता ज्ञानी पुरुषों के सिवाय सामान्य व्यक्ति को होता नहीं, इसलिए उसे सर्वज्ञों पर विश्वास रखकर उग्रतपश्चरण करना चाहिए । 1 चौथी बात यह है कि मनुष्य की आयु अधिक से अधिक सौ सवासी वर्ष होती है, आजकल तो आयु का औसत दर घट गया है, और कर्मदलिक ( कर्मों के जत्थे ) होते हैं, बहुत अधिक मात्रा में । इसलिये इस थोड़े से समय में अधिक कर्मों को क्षय करने के लिये उग्रतप के सिवाय कोई चारा नहीं । मामूली एकाध बार के तप से इतनी थोड़ी-सी जीवितावधि में इतने अधिक बँधे हुए कर्मों का क्षय नहीं है । इसलिए थोड़ी-सी आयु में अधिकाधिक कर्मपुंज को नष्ट करने श्चरण की आवश्यकता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only होना सम्भव हेतु उग्रतप www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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