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उग्रतप की शोभा : शान्ति-१ १५१ उग्रतप से दुष्प्राप्य वस्तु प्राप्त होने की साक्षी योगवशिष्ठ भी दे रहा है -
"तपसैव महोग्रेण यदुरापं तदाप्यते ।" "जो भी दुष्प्राप्य वस्तुएँ हैं, वे महा उग्रतप से ही प्राप्त होती हैं।"
परमात्म-प्राप्ति या परमात्म-साक्षात्कार सबसे कठिन कार्य है, परन्तु तप से आत्मशुद्धि होने पर परमात्मपद-प्राप्ति भी हो जाती है। सरलात्मा बालक ध्रुव की उग्र तपस्या इस सम्बन्ध में ज्वलन्त उदाहरण भागवत में प्रसिद्ध है।
बालक ध्रुव एक दिन खेलते-खेलते आया और अपने पिता राजा उत्तानपाद की एक तरफ की खाली गोद में बैठ गया। उत्तानपाद राजा उस समय अपनी मानीती छोटी रानी के महल में बैठा था। उसकी एक तरफ की गोद में छोटी रानी का लड़का बैठा था। सौत के लड़के को अपने लड़के की बराबरी में बैठे देख छोटी रानी ईर्ष्या से भड़क उठी। उसने ध्रुव को पिता की गोद से हटा दिया। वह बोली-“अगर इस गोद में बैठना था, तो मेरे पेट से जन्म लेना था।"
बालक ध्र व सौतेली माँ के इस क्रूर व्यवहार से दुखित हो रोता-रोता अपनी माँ के पास पहुँचा । उसने अपना वृत्तान्त सुनाते हुए कहा- "माँ ! तुम्हारे पेट से जन्म लेने के कारण क्या मैं पिताजी की गोद में बैठने लायक भी न रहा ?" पुत्र की यह बात सुनकर सहनशीला सुनीति रानी को कितना दुःख हुआ होगा ? किन्तु उसने यह सुनकर पति और सौत के विरोध में एक शब्द भी न कहा । बालक से कहा-"बेटा ! मुझसे बिना पूछे तू पिताजी की गोद में बैठने गया ही क्यों ? हम तो परमात्मा की गोद में बैठे हैं, फिर किसी और की गोद में बैठने की हमें जरूरत ही क्या है ? तप करके ईश्वर के प्रति अर्पित कर देने से वह सर्वश्रेष्ठ गोद-रूप पद प्राप्त होता है । बेटा ! उस राज्य के समक्ष सभी कुछ तुच्छ हैं !"
बन्धुओ ! ध्रुव की माता में कितनी सहनशीलता और धीरता थी ! कितनी उदात्त भावना थी ! अपने पुत्र को परमात्म-पद की प्राप्ति के लिए उसने उग्रतप की कितनी उच्च शिक्षा दी थी। और अन्त में यह भी कहा- 'बेटा ! इस उग्रतप की साधना किसी के प्रति द्वष-दुर्भावना न रखते हुए सहिष्णु होकर करनी होती है।"
वह स्वयं अपने पति द्वारा किये हुए घृणित व्यवहार को उनके प्रति कुछ भी शिकायत किये बिना शान्ति से सहन करती थी और अपनी वर्तमान स्थिति में सन्तुष्ट थी। कोई कुछ सहानुभूति प्रकट करता तो वह कहती-"मुझ पर उनका कितना अनुग्रह है कि उन्होंने मुझे सांसारिक मोह से हटाकर परमात्म-भक्ति और धर्माचरण में जीवन बिताने का सुअवसर दिया।" वह अपने प्रति अपमानयुक्त व्यवहार को भी कायक्लेश या प्रायश्चित्त तप करने का लाभ मानती थी। कितनी उग्र तपस्या थी उसकी ! तभी तो वह ध्रुव को उग्र तप की शिक्षा दे सकी ! अगर
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