SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 174
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५० आनन्द प्रवचन : भाग १० एक दिन साधुजी ने रामायण उठाकर देखी, उसमें सुवाक्य था-"तपु आधार सब सष्टि, भवानी !" उपनिषद् में एक वाक्य मिला--'दिवमारुहत तपस्या तपस्वी' तपस्वी तप के प्रभाव से स्वर्ग को प्राप्त करता है। और फिर एक वाक्य मिला-'तपः स्वाध्यायाभ्यां मा प्रमदः'-तप और स्वाध्याय से विषय में प्रमाद मत करो। सोचा- तप से आत्मशुद्धि और स्वाध्याय से आत्मज्ञान प्राप्त करना चाहिए । उन्होंने कुछ दिन तक अल्पाहार रखा, फिर आंशिक उपवास, तत्पश्चात् पूर्ण उपवास किये । तप और स्वाध्याय दोनों का क्रम चलता रहा। इनसे आत्मशुद्धि और आत्मज्ञान दोनों प्राप्त हुए, सांसारिक मोहबन्धन टूटने लगे; केवल कर्त्तव्य शेष रहा । और एक दिन सरकार और जनता के सहयोग से वहाँ एक आध्यात्मिक संस्थान खड़ा हो गया। साधु नारायणदासजी की उग्र तपःसाधना ज्ञानयोग के साथ सफल हुई। उग्रतप का महत्व और लाभ उग्रतप का वर्णन सुनने के बाद आप यह तो समझ ही गये होंगे कि उग्रतप कितना लाभदायक है ? फिर भी हम उग्रतप के माहात्म्य के सम्बन्ध में महापुरुषों के चिन्तन की संक्षिप्त झांकी प्रस्तुत करते हैं। उत्तराध्ययन सूत्र एवं दशाश्रुतस्कन्ध में यत्र-तत्र तप की महिमा का गान किया गया है भवकोडी संचियं कम्मं तवसा निजरिज्जइ । "करोड़ों जन्मों के संचित कर्म तपस्या से जीर्ण होकर झड़ जाते हैं।" तवेण परिसुज्झइ । "तपस्या से आत्मा पवित्र होती है।" तवेण वोदाणं जणयइ । "तपस्या से व्यवदान-कर्मशुद्धि होती है।" तवसा अवहट्टलेस्सस्स देसणं परिसुज्झइ । "तपस्या से लेश्याओं को संवृत करने वाले व्यक्ति का दर्शन-सम्यक्त्वपरिशोधित होता है।" उग्रतप के साथ सहिष्णुता हो, तभी महाशक्ति मनुस्मृति में तपस्या की महाशक्ति का वर्णन करते हुए कहा है यद्दुस्तरं यद्दुरोहं यदुर्ग यच्च दुष्करम् । सर्वं तु तपसा साध्यं तपो हि दुरतिक्रमम् ॥ "संसार में जो भी दुस्तर है, दुष्प्राय है, दुर्गम है, अथवा दुष्कर है, वह सब तप द्वारा सिद्ध किया जा सकता है; क्योंकि तप दुरतिक्रम है-इसके आगे कठिनता या दुर्लभता जैसी कोई चीज नहीं है।' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy