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________________ उग्रतप की शोभा : क्षान्ति-१ १४७ तुलसीकृत वैदिक रामायण का प्रसंग है। परशुरामजी उग्रतप के लिए प्रसिद्ध हैं। वे जितने उग्र तपस्वी थे उतने ही उग्र क्रोधी भी । जिन दिनों वे पर्वत शिखर पर तपस्यारत थे, उन्हीं दिनों, जनक के यहाँ रखा हुआ शिवधनुष सीताजी के स्वयंवर में आये हुए अनेक राजाओं एवं राजकुमारों में से श्रीराम ने तोड़ा था। धनुष टूटने की आवाज दूरस्थ पर्वतशिखर पर भी पहुंच गई थी। उग्र तपस्वी परशुरामजी जनक के यहाँ शिवधनुष को टूटा जानकर तुरन्त स्वयंवर मण्डप में पहुँचे। क्रोध से लाल उनके नेत्र, उनकी भयंकर कुटिल भकुटि एवं फड़कते हुए नथुनों को देखकर सभागत सभी राजा आदि भयभीत होकर काँपने लगे । परशुरामजी के एक कंधे पर परशु रखा था, एक पर धनुष लटक रहा था। सभी राजा उनके चरणों में प्रणाम करने लगे। राजा जनक ने जब प्रणाम किया तो परशुराम ने क्रुद्ध होकर पूछा"जनक ! किसने तोड़ा है, यह शिवधनुष ?" राजा जनक उनके क्रोधाविष्ट प्रश्न से काँप उठे। वे चुप हो गये । शीलगुणनिधान श्रीराम ने उत्तर दिया-"मुनिवर ! धनुष को तोड़ने वाला आपका ही कोई सेवक है।" परशुराम क्रोध से गर्ज उठे-"वह सेवक नहीं, मेरा शत्रु है !" श्रीराम परशुराम के क्रोध का शान्ति से उत्तर देना चाहते थे। लक्ष्मण ने जब परशुरामजी के क्रोध का क्रोध और व्यंग्य वचनों से प्रतिकार किया तो राम ने आँखों के इशारे से उन्हें चुप कर दिया। श्रीराम ने परशुरामजी का कोप शान्त करने के लिए मधुर वाणी में कहा-'भृगुकुलमणि ! आपका अपराधी मैं हूँ। मेरे हाथ से ही यह शिवधनुष टूटा है । आपका क्रोध जिस तरह से शान्त हो, उसी प्रकार का दण्ड दीजिए । मैं सहर्ष दण्ड पाने को तैयार हूँ।" श्रीराम के शान्ति-सुधामय वचनों से परशुराम का क्रोध कुछ ठण्डा हो गया। वे बोले---"राम ! यदि धनुष तुमने ही तोड़ा है, तो तुम मुझसे युद्ध करो।" राम ने शीतलताप्रद उद्गार निकाले—“विप्रवर ! ब्राह्मण और क्षत्रिय में युद्ध कैसा ? मैं तो आपका दास हूँ। आपके हाथ में फरसा है, मेरा मस्तक झुका हुआ है; लेकिन भृगुवंशमणि ! आप तपस्वी हैं, आपको तो क्रोधविजयी होना चाहिए। तपस्वी में तो शम, दम, तप, शौच, क्षमा आदि अनेक गुण होते हैं। इन गुणों के कारण हम क्षत्रिय आपके साथ कभी युद्ध नहीं करते। इसलिए आप युद्ध का विचार त्याग दीजिए।" परशुराम- "यदि तुम युद्ध नहीं करना चाहते हो तो परीक्षा दो।" श्रीराम-"कैसी परीक्षा, विप्रवर !" परशुराम--"मेरा यह धनुष लो, इसे चढ़ाकर दिखाओ।" श्रीराम-"जो आज्ञा ! मैं परीक्षा देने के लिए तैयार हूँ।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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