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________________ १४८ आनन्द प्रवचन : भाग १० ज्यों ही परशुराम धनुष देने को तैयार हुए, त्यों ही वह अपने आप श्रीराम के हाथों में चला गया। परशुराम विस्मित-से, पराजित-से, हतप्रभ होकर श्रीराम को देखने लगे। राम की शान्तस्निग्धधारा उनके मन-मस्तिष्क में समा गई, उनका क्रोध एकदम ठण्डा हो गया। सच है, उग्रतप के साथ जहाँ क्रोध होता है, आत्मसमाधि नहीं होती, वहां वह व्यक्ति पराजित और अपमानित हो ही जाता है, उग्र तपस्या रूपी तलवार उसकी रक्षा करने के बदले उसके आत्मगुणों का संहार कर देती है। उग्रतप ज्ञान-गंगा के साथ चमकता है __ वस्त्र मलिन होता है तो उसे स्वच्छ करने के लिए दो चीजें जरूरी होती हैं—पानी और साबुन । अकेले पानी से वस्त्र भली-भाँति स्वच्छ नहीं होता और न अकेले साबुन से ही । अकेला साबुन वस्त्र पर रगड़ने से उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। इसी प्रकार आत्मा की स्वच्छता के लिए तपरूपी साबुन के साथ ज्ञानरूपी जल की नितान्त आवश्यकता है। आत्मा अनन्त-अनन्त काल से वासना, कुसंस्कार एवं कर्मों के संयोग के कारण मलिन, अपवित्र और अशुद्ध हो गया है, विषयों के प्रति आसक्ति और क्रोधादि कषायों ने उसकी स्वच्छता समाप्त कर दी है। अतः उसे स्वच्छ और शुद्ध करना आवश्यक है। आत्मा की शुद्धि और स्वच्छता के बिना कोई भी साधना सफल नहीं होती। जीवन साधनाजनित अहंकार और मद में फूलकर मलिन हो जाता है। कोरा उग्रतप भी ज्ञान के बिना आत्मा को गर्वित और मदग्रस्त बना देता है। तप से जो भी शक्ति पैदा होती है, वह दूसरों को पीड़ित करने, शाप देने, और अहंकार में आकर दूसरों पर रौब गाँठने में काम आती है। इसलिए उग्रतप के साथ ज्ञान का होना परम आवश्यक माना गया है । तप, ज्ञान और जप तप और ज्ञान के साथ जप भी हो तो सोने में सुगन्ध है। तप, जप और ज्ञान इन तीनों के संयोग से आत्मा शुद्ध और पवित्र हो सकता है। तप से साधक अपनी आत्मा को तपाता है, जप से अपने स्वरूप के प्रति श्रद्धा को दोहरा कर विश्वास पक्का करता है और ज्ञान से अपने आपको पहचानता है। एक कवि ने अपना सुन्दर चिन्तन व्यक्त किया है ज्ञान की निर्मल गंगा और तप-जप की यह जमना । बोल मानव ! बोल, संगम होगा कि नहीं ? ॥ध्रुव ॥ मन मैला है, तन है उजला, कैसी यह तेरी माया है ? दिल में नफरत, मुंह का मीठा, दोहरा रंग बनाया है। तन-मन का रंग एक तेरा, कभी होगा कि नहीं? बोल.... Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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