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________________ उग्रतप की शोभा : शान्ति--१ १४५ आत्मानुशासन में भी स्पष्ट कहा है सकल शास्त्रं सेवितां सूरिसंघानन् दृढयतु च तपश्चाभ्यस्यस्यतु स्फीत योगम् । चरतु विनयवृत्तिं बुध्यतां विश्वतत्त्वं, यदि विषयविलासः सर्वमेतन्न किंचित् ॥ --कोई तपस्वी समस्त शास्त्रों का अध्ययन करे, आचार्य के संघ में रहकर संघ-प्रभावना से उसे सुदृढ़ करे, निश्चल योगों से तपश्चर्या भी करे, विनयवृत्ति भी धारण करे और विश्व के समस्त तत्त्वों को भी जानें किन्तु उसके जीवन में विषयविलास है तो ये सब निरर्थक हैं। निष्कर्ष यह है कि आत्मसमाधि, संयम और आत्मज्ञान के बिना उग्र से उग्र तप भी निरर्थक है, वह मोक्षफल देने में असमर्थ है। उग्र तपस्या करते समय प्रतिकूल वातावरण एवं विपरीत परिस्थितियाँ तथा अन्य आत्मसमाधि भंग करने के प्रसंग भी आ जाएँ तो भी सम्यग्द्रष्टा साधक इस बात की पूरी सावधानी रखता है कि कहीं मैं अपनी शान्ति से विचलित न हो जाऊं, मेरे अन्तःकरण के किसी भी कोने में क्षोभ प्रकट न हो, मेरे चित्त में शान्ति और प्रसन्नता निराबाध रहे । यही सच्चा उग्र तप है। निर्ग्रन्थ-परम्परा का मूल स्वर यही रहा कि देहदमन या कायक्लेश कितना ही उग्र क्यों न हो, यदि उसका उपयोग आध्यात्मिक शुद्धि तथा चित्तक्लेश निवारण में नहीं होता तो वह देहदमन या कायकष्ट वृथा है । निर्ग्रन्थ परम्परा देहदमन या कायक्लेश को तभी सार्थक मानती है, जब उसका सम्बन्ध आत्मिक शुद्धि के साथ हो। महर्षि पतंजलि ने भी योगदर्शन में स्पष्ट कहा है-"तप का प्रयोजन--क्लेशों को निर्बल करना तथा समाधि के संस्कारों को पुष्ट करना है।" तथागत बुद्ध ने कई वर्षों तक कठोर तप किया। राजभवनों के सुखभोग छोड़े, वन में सतत रहे । शरीर अत्यन्त कृश एवं अस्थिपंजर हो गया, उन्हें आत्मसमाधि प्राप्त न हुई । आत्मसमाधि प्राप्त न होने से आत्मशक्ति तो मिलती ही कहाँ से ? अतः तथागत बुद्ध के उस उग्र तप को आत्मसमाधिजनक नहीं कहा जा सकता; वह सिर्फ देहदमन या कायकष्ट ही हुआ । उस उग्र तप से उनका कर्मक्षय नहीं हुआ, क्योंकि उस तप से उनकी आत्मा में शान्ति, समता एवं निश्चिन्तता न आई; प्रत्युत उस उग्र तप से उनका चित्त विचलित हो उठा, उनकी श्रद्धा डोल उठी और अन्त में एक दिन उन्होंने सुजाता के हाथ से खीर लेकर पारणा कर ही लिया। ___महाराजा शिखिध्वज ने अपना राज-पाट छोड़कर उग्रतप करने के लिए जंगल की ओर प्रस्थान किया । वहाँ तप करते हुए उन्होंने अनेक कष्ट सहे. परन्तु उस तप के साथ सम्यग्दर्शन, आत्मा और शरीर का भेदविज्ञान एवं तदनुसार आत्मसमाधि नहीं थी। फलतः उन्हें आध्यात्मिक शान्ति नहीं मिली। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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