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आनन्द प्रवचन : भाम १०
श्वसुर जी को ५ उपवास करने का कष्ट उठाना पड़ा । अब मैं सुबह होते ही अपना अपराध उनके सामने प्रगट करके उनसे क्षमा माँगूंगी।'
इधर सुबह होते ही श्वसुर ने पत्रवधू ने कहा-"बेटी ! अब आगे मेरी शक्ति नहीं है, तप करने की । आज पारणा करने के बाद मैं जवान रसोइये को ले आऊँगा।"
पुत्रवधू ने अश्रुपूरित नयनों से करबद्ध होकर कहा-"पिताजी ! अब मुझे जवान रसोइये की जरूरत नहीं है । मुझे आपसे शरीर और मन को तप द्वारा साधने की तालीम मिल चुकी है। मुझे क्षमा करें। आपको मेरे लिए इतना कष्ट उठाना पड़ा।" यों कहकर उसने श्वसुर के चरणों में गिर धर्मपिता के रूप में मानकर सारी अपराध कथा कह डाली।
___श्वसुर ने आश्वासन देते हुए कहा-"बेटी ! यह तो मेरी गलती थी कि मैंने तुझे इतनी आजादी के साथ-साथ पहले से ही तप की तालीम नहीं दी । तू तो अबोध लड़की थी। जो भी हुआ, उसके लिए मैं भी कुछ हद तक जिम्मेवार हूँ । क्षमा कर दे मुझे ! भविष्य में अपने पर तप का अंकुश रखकर धर्म पर दृढ़ रहना।"
उसी दिन से बहू ने अपना शरीर, इन्द्रियाँ और मन तप मे तपाकर साधना शुरू किया। सादा भोजन और बीच-बीच में कभी उपवास, आयंबिल आदि तप का क्रम जीवन पर्यन्त उसने चालू रखा ।
यह है-तप द्वारा शरीर आदि को साधने का उपाय । आत्मसमाधि से रहित उग्रतप व्यर्थ
- उग्र तप में यदि आत्मसमाधि न रहती हो, तो यह केवल शारीरिक कष्ट है । औपपातिक सूत्र में बड़े-बड़े तपस्वियों की कहानियाँ दी गयी हैं । बे तपस्वी बहुत ही उग्र तप करते थे, काँटों की शय्या पर सोते थे, पाँचों ओर पंचाग्नि तप तपते थे, औंधे लटककर रहते थे, घण्टों पानी में खड़े रहते थे, बहुत ही थोड़ा, कन्दमूल, फल आदि का आहार लेते थे। परन्तु इन सबके पीछे उद्देश्य आत्मशुद्धि का न होने से, तथा ये अज्ञानमूलक होने से आत्मसमाधिकारक नहीं होते थे, केवल शरीर और मन के लिए क्लेशकारक होते थे।
इसलिए इन्हें बालतप कहा गया है । अगर कोई व्यक्ति उग्र तपश्चरण करता है, किन्तु वह आत्मसमाधि या तपसमाधि से रहित है, तो भले ही शास्त्रों का ज्ञाता हो, तत्त्वज्ञान की बातें बघारता हो, या तपस्या के तत्त्व को जानता हो, या साधु जीवन की धार्मिक क्रियाएँ करता हो, उसका उग्र तप भी वास्तविक तप की कोटि में परिगणित नहीं किया जा सकता । परमात्म प्रकाश में ठीक ही कहा है
घोरं करंतु वि तवचरणु, सयलं वि सत्थं मुणंतु । .. परमसमाहि विवज्जियउ, णवि देक्खइ सिउ संतु ॥
—जो घोर तपश्चरण करता है, समस्त शास्त्रों को भी जानता है; लेकिन यदि वह परमसमाधि से रहित है तो वह शान्तरूप मंगलकारक शुद्धात्मा को नहीं देख सकता।
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