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________________ १४२ आनन्द प्रवचन : भाग १० पड़ने से उसमें गम्भीरता भी आती गई। घर और पड़ोस के सभी लोग उसे 'बड़ी जीजी' कहकर पुकारते थे। वह भी अपने अच्छे और उदार स्वभाव के कारण सबकी प्रिय हो गई, सबका पालन-पोषण माता की तरह करने लगी। श्वसुर की ओर से वह निश्चिन्त थी। खान-पान की सारी सुविधाएँ और सब प्रकार की आजादी उसे मिल ही गई थी। अतः वह उत्साहपूर्वक अपने कार्यों में जुटी रहती। धीरे-धीरे वह अपने वैधव्य का दुःख भूल गई।। यद्यपि सेठ ने दीर्घदृष्टि से सोचकर अपनी विधवा पुत्रवधू को सुन्दर ढंग से जीवन यापन करने की स्वतन्त्रता दी थी, परन्तु आप जानते हैं कि अत्यधिक सुखसुविधाएं, सरस स्वादिष्ट गरिष्ठ खान-पान और सब तरह की आजादी के साथ जीवन में यदि तप, संयम और त्याग का नियन्त्रण न हो, जीवन को तप की तालीम लेकर साधा न जाय तो उसके पतन का खतरा रहता है । विधवा युवती की उम्र भी अधिक नहीं थी फिर तप-संयम का नियन्त्रण न होने से कामोन्माद ने अपना रंग जमाना शुरू कर दिया। प्रारम्भ में तो वह संभल गई। पर जब उसकी उत्कटता छा जाने लगी, तब उसने मन ही मन सोचा-कोई ऐसा उपाय किया जाय, जिससे कामवासना भी शान्त हो जाय और दोनों कुलों की आबरू भी न जाय । अगर यह बात कहीं फैल गई तो मेरे दोनों कुलों को दाग लगेगा, नीचा देखना पड़ेगा। अतः बहतर यही है कि घर में ही ऐसा कोई उपाय किया जाय । __जब मनुष्य बुरी राह पर चलने को तैयार होता है तो उसकी बुद्धि कोई न कोई खोटा रास्ता भी खोज लेती है । सेठ की विधवा पुत्रवधू को भी अपने विचार को अमल में लाने की युक्ति सूझ गई । उसने दूसरे ही दिन अपने बूढ़े श्वसुर से कहा"पिताजी ! अपना रसोइया बहुत बूढ़ा हो गया है, उसे आँखों से भी कम दिखाई देता है, रसोई बनाने में भी उसे दिक्कत होती है, अतः आप कोई जवान रसोइया तलाश करके ले आइए । मैं आज से अपने पुराने रसोइये को छुट्टी दे रही हूँ।" । सेठ के बाल पक चुके थे। उसकी बुद्धि जीवन के कई उतार-चढ़ाव के गम्भीर अनुभवों की आँच में तपी हुई थी। वह पुत्रवधू की बात सुनते ही उसकी तह तक पहुँच गया । उसे डाँटने-फटकारने और धमकाने के बदले सेठ ने आत्मनिरीक्षण किया-'अहो ! इसमें मेरी ही भूल है कि इसे इतनी सुख-सुविधाओं और साधनों की पूरी छूट तो दे दी, मगर इसके साथ ही शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि पर स्वैच्छिक अंकुश रखने की-तप की तालीम न दे सका। अन्यथा, इसे ऐसा सोचने की नौबत ही न आती। अपनी भूल का प्रायश्चित्त मुझे ऐसा करना चाहिए, जिससे इसे भी तप की तालीम मिले और इसके मन से दुर्विचारों का सफाया हो जाय ।' सेठ ने अपनी वणिक् बुद्धि का उपयोग किया । पुत्रवधू से स्नेहभरी मृदु वाणी में कहा-'बेटी ! आज तो एकादशी है । मेरे तो उपवास है। तुम आज की रसोई का काम किसी तरह से चला लो। कल दूसरे रसोइये की तलाश करूँगा।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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