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उग्रतप की शोभा : शान्ति-१
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महसूस कर सकें । आप उस परिस्थिति के गुलाम नहीं, मालिक बनकर रहें । आपको खान-पान, वस्त्र तथा अन्य साधन मिले या न मिले, मिले तो पर्याप्त न मिले, मनोऽनुकूल न मिले, परन्तु तपस्या के कारण आपके शरीर और मन की इतनी अच्छी तैयारी रहे कि आप उस समय मस्ती से, शान्ति से, विक्षुब्ध हुए बिना रह सकें, रो-धोकर समय न काटें, अपितु, प्रसन्नता से समय बिता सकें। शरीर और मन की इतनी तैयारी रहे कि प्रत्येक कष्ट, रोग, दुख या संकट का सामना समभावपूर्वक कर सकें। जब तपस्ता से शरीर और मन इतना सधा हुआ और कसा हुआ रहेगा तो साधक काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि मनोविकारों से लड़ सकेगा और उन्हें दुर्बल बनाकार खदेड़ सकेगा। जो अशुभ कर्म पहले बँधे हुए होंगे, उन्हें वह तपस्या से शरीर और मन को तपाकर, इच्छा निरोध करके नष्ट कर सकेगा। कहा भी है
तवसा धुणइ पुराणपावगं तपस्या के प्राचीन (पहले बँधे हुए) पापकर्मों को क्षीण करता है । शरीर, मन और इन्द्रियों को तप द्वारा कैसे साधा जा सकता है ? इसके लिए एक प्रेरणाप्रद दृष्टान्त लीजिए
एक धनाढ्य सेठ की पत्नी गुजर गई। उसके एक ही लड़का था। जब वह विवाह योग्य हुआ तो किसी कुलीन घराने की लड़की के साथ उसका विवाह कर दिया। दुर्दैव से लड़का शादी होते ही कुछ दिनों बाद चल बसा। बेचारी लड़की के भाग्य में पति का सुख बदा नहीं था। लड़की अपना मन बहलाने को कुछ दिनों के लिए अपने पीहर चली गई। परन्तु सारी जिन्दगी पीहर में तो कट नहीं सकती थी, ऐसा सोचकर वह अपनी ससुराल आई । उसका श्वसुर धनाढ्य के साथ-साथ धर्मपरायण और विवेकवान था। अपनी विधवा पुत्रवधू की मनःस्थिति को वह भलीभांति समझता या । सेठ ने सोचा-'अगर मैं धौंस जमाकर या जली-कटी सुनाकर इसे दुःखित करूँगा तो इसकी आत्मा को बड़ा भारी आघात पहुँचेगा और सम्भव है, परिस्थिति असह्य हो जाने पर यह उसे न सह सकने के कारण आत्महत्या कर बैठे । अतः अच्छा तो यह होगा कि इसे इस ढंग से रखा जाय, ताकि इसका मन भी इस घर में लगा रहे और हमारी कुल-परम्परा के अनुसार यह धर्म में भी दत्तचित्त रहे ।'
सेठ ने मौका पाकर एक दिन अपनी पुत्रवधू से कहा- "बेटी ! ये ले चाबियाँ । आज से इस घर की मालकिन तू है। घर की सब चीजें तेरे अधिकार में हैं। तू इनका मनचाहा उपयोग करना । तुझे खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने वगैरह के लिए जो कुछ भी वस्तु चाहिए वह मँगा लेना । पर एक बात का ध्यान रखना तुम्हारे जीवन में कोई भी ऐसा आचरण न हो, जिससे तुम्हारे पितृकुल को अथवा मेरे (श्वसुर) कुल को दाग लगे, समाज में नीचा देखना पड़े।"
समझदार पुत्रवधू ने श्वसुर की बात सहर्ष स्वीकार की। घर का स्वामित्व पाकर अब वह प्रसन्न थी, साथ ही घर की व्यवस्था का सारा भार उस पर आ
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