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१४० आनन्द प्रवचन : भाग १०
- वही तप करना चाहिए, जिसके करने में आर्त्तध्यान - रौद्रध्यान पैदा न हो, मन-वचन-काया से प्रवृत्ति करना दुःशक्य न हो, इन्द्रियाँ बिलकुल क्षीण न हो जायँ ।
यद्यपि तपस्या करने वाला साधक स्वेच्छा से ही करता है, परन्तु स्वेच्छा के साथ यदि अपनी मनः समाधि का ध्यान नहीं रखकर शरीर को एकदम निढाल एवं निश्चेष्ट बना देता है, इन्द्रियों को तोड़फोड़ या मार-पीटकर प्रवृत्ति करने से रोकता है, मन में आर्त्तध्यान या रौद्रध्यान पैदा होता है, तो वह उग्र तप सुख-शान्तिकारक नहीं हो सकता । वह उग्रतप असमाधिकारी होने से बिलकुल हेय है । परन्तु जिस तप में मन की समाधि भंग न होती हो, साधक अपने आत्मस्वरूप या स्वाध्याय, सेवा आदि में इतना तल्लीन हो जाता है, कि उसे खाने-पीने की कभी मन में भी नहीं आती, न इन्द्रियों को कोई थकान महसूस होती है, मन में भी कभी यह विचार नहीं आता कि कहाँ प्रत्याख्यान ले बैठा इतने उपवासों के ? या कहाँ मैंने जिम्मेवारी ले ली इसकी सेवा करने को ? या कहाँ मैं फँस गया इस तपस्या के चक्कर में ? यह तो अच्छा नहीं हुआ ? इस प्रकार का आर्त्तध्यान या दूसरों को मारने-पीटने, सताने, धोखा देने, परिग्रह बढ़ाने आदि रौद्रध्यान के विचार कतई नहीं आते, तो ऐसा उग्रतप कभी असमाधिकारक नहीं हो सकता । ऐसा उग्र तप सम्यग्दर्शन एवं ज्ञानपूर्वक होने से सच्चा है, सुख-शान्तिकारक है ।
उग्रतप से शरीरादि को साधा जाय
यह ध्यान रहे कि तपस्या से शरीर, मन, इन्द्रियाँ, बुद्धि आदि सबको साधना है, इन्हें मारना नहीं है। मारने और साधने में बहुत अन्तर होता है । मारने में तो शरीरादि पर रोष, द्वेष, घृणा आदि आने की सम्भावना है; और यदि रोष, द्वेष आदि मन में आ गए या केवल हठाग्रह करके शरीरादि पर बलात्कार किया गया तो, वहाँ तप: समाधि समाप्त हो जायगी । शरीरादि पर अत्याचार करना तप नहीं है, वह ताप है | शरीरादि को साधने के लिए तपः साधक पहले अपनी आत्मा और शरीर के भेदविज्ञान को समझ लेता है, फिर स्वेच्छापूर्वक अपनी मस्ती से तपश्चरण आगे से आगे बढ़ाता जाता है, अपनी आत्मसमाधि नहीं खोता । वही सच्चा उग्र तप है, जिसमें दुःख, क्लेश, आर्त्तध्यान आदि नहीं होते ।
तप से शरीर, मन और इन्द्रियों को तपाकर इन्हें साधने की प्रक्रिया क्या है ? यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है । तप से शरीर आदि को साधने का मतलब हैशरीरादि को बेकाबू होने से रोकना, उन्हें नियन्त्रण में रखना या इन पर शासन करना; ताकि जिस समय जैसे चाहें वैसे ही रूप में हमारे शरीर, मन, इन्द्रियाँ आदि रह सकें। सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास, साधनों का अभाव, संकटों की बौछार जैसी कोई भी विकट परिस्थिति हो, समभावपूर्वक हमारे मन, बुद्धि, शरीर, इन्द्रियाँ आदि हमारे अनुचर बनकर रह सकें; विकट से विकट स्थिति में हम सुख, सन्तोष व आनन्द
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