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उग्रतप की शोभा : शान्ति–१ १३७ या दोष करने के लिए प्रेरित या प्रवृत्त करते रहते हैं। इनलिए बाह्य तप में कुछ ऐसी अनशन (उपवास आदि), ऊनोदरी आदि क्रियाएँ की जाती हैं, जिनसे शरीर को ताप (संताप) पहुँचे; परन्तु उस संताप को समभाव से सहने की शक्ति तपःसाधक में
आ जाए तथा अन्तरंग तप में कुछ ऐसी मानसिक प्रवृत्ति (भावनाएँ, संकल्प आदि) के साथ-साथ शारीरिक क्रियाएँ की जाती हैं, जिनसे विविध इच्छाओं, वासनाओं तथा कषायों को ताप पहुँचे और उससे इनका दमन-शमन एवं शोधन हो।
मतलब यह है कि तपःसाधक अनशन (उपवासादि), ऊनोदरी, वृत्तिपरिसंख्यान, रस-परित्याग, विविक्तशय्यासन (या प्रतिसंलीनता) एवं कायक्लेश, इन ६ बाह्यतपों के द्वारा तथा प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग इन ६ आभ्यन्तर तपों के द्वारा शरीर मन और वचन की शक्ति को न छिपाता हुआ पूरे उत्साह, समता और शान्ति के साथ निर्भय होकर आगे बढ़ता जाता है और कर्मों के साथ युद्ध करके विजय प्राप्त करता है, अपनी आत्मा को शुद्ध करता है।
___ यद्यपि इन तपस्याओं में कष्ट-सहन तो है ही, चाहे शारीरिक कष्ट-सहन हो, चाहे मानसिक कष्ट-सहन, वह अवश्य है, पर यह कष्ट दूसरों के द्वारा लादा हुआ नहीं होता, तपःसाधक स्वेच्छा से इन कष्टों को आमंत्रित करता है और अपनी आत्मशक्ति, मनोबल, संकल्प शक्ति बढ़ाता है। वह अपने शरीर और मन को मोक्ष (कर्ममुक्ति या रत्नत्रय द्वारा समस्त कर्म मुक्ति) के उत्पादनार्थ लगाए हुए यंत्रों से अधिक नहीं समझता। यंत्र कदाचित् बिगडता है, चलते-चलते रुक जाता है, या मन्द चलता है तो यंत्र के मालिक को इतनी चिन्ता नहीं होती, वह इसे दुरुस्त करा लेता है, इसी प्रकार शरीर और मन के यंत्र के बिगड़ने या मन्द पड़ने की चिन्ता तपः साधक को नहीं होती, वह जानता है कि तप से ये यंत्र शुद्ध होकर अधिक काम करेंगे, अन्यथा इनमें कूड़ा-कर्कट, कीटा, मैल आदि आ जाएगा और कर्मक्षयरूप उत्पादन को ठप्प कर देगा।
शरीर की आवश्यकताओं पर विजय प्राप्त करना या उन्हें रोकना बाह्य तप के द्वारा होता है, जबकि मन की आवश्यकताओं या इच्छाओं का निरोध करना आभ्यन्तर तप से होता है। दोनों ही प्रकार के तपों द्वारा शारीरिक, मानसिक शक्तियों में वृद्धि होने से कर्मों से समभावपूर्वक जूझने का कार्य आसान हो जाता है ।
आज तप का नाम लेते ही लोग समझ लेते हैं कि उपवास करना ही एक मात्र तप है, किन्तु भगवान महावीर ने केवल भूखे रहने और उसके पीछे कोई उद्देश्य, प्रयोजन, चिन्तन, सम्यग्दर्शन आदि न रहे तो उसे वास्तविक ज्ञानमय तप नहीं कहा है, उसे बालतप (अज्ञान तप) कहा है।'
मान लो, उपवास के सिवाय अन्य बाह्यतप या प्रायश्चित्त आदि आभ्यन्तर तप का भी अनुष्ठान किया, लेकिन अगर उस तप के पीछे कोई प्रसिद्धि, आडम्बर,
१. देखें भगवती सूत्र एवं औपपातिक सूत्र ।
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