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________________ १३८ आनन्द प्रवचन : भाग १० सत्कार, पूजा, प्रतिष्ठा या नामना की कामना है, यशोलिप्सा है, अथवा अन्य कोई धन, साधन, पद, या सत्ता आदि की इच्छा है या इहलौकिक अथवा पारलौकक विषय. सुखभोग की इच्छा है, भोग के उत्तम साधनों या स्वर्गादि सुखों की लालसा है, अथवा वैसा तप करके जल्दी से जल्दी शरीर को समाप्त कर देने की इच्छा है, अथवा शरीर को स्वस्थ एवं सशक्त बनाकर उससे वैषयिक सुखोपभोग की या दीर्घायु बनने की लिप्सा है । ये और इस प्रकार की कोई भी लिप्सा तप के पीछे है तो अध्यात्म की दृष्टि में वह तप सच्चा तप नहीं है । देखिये तप के सम्बन्ध में भगवान महावीर का सम्यक् दृष्टिकोण नो इहलोगट्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा, नो परलोगट्ठयाए तवमहिद्विज्जा । नो कित्तिवन्नसद्दसिलोगट्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा, नन्नत्थ निज्जरठ्याए तवमहिट्ठिज्जा ॥ इहलौकिक सुखभोग या किसी पदार्थ या सिद्धि आदि की वाञ्छा से तप न करे। न पारलौकिक सुख-भोगादि की इच्छा से तप करे, पूजा, सत्कार, सम्मान, कीर्ति, प्रसिद्धि, वाहवाही, प्रशंसा या नामबरी की दृष्टि से तप न करे । किन्तु एक मात्र निर्जरा (कर्मक्षय) के हेतु से तप की साधना करे । एक आचार्य ने तपस्या का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए कहा है निर्दोषं निनिदानाढ्यं तन्निर्जरा प्रयोजनम् । चित्तोत्साहेन सद्बुद्ध या तपनीयं तपः शुभम् ।। -दोषरहित, निदान (सुखादि वाञ्छा का नियाणा) से रहित, सिर्फ निर्जरा के प्रयोजन से, चित्त के उत्साह के साथ सद्बुद्धि तथा विवेकपूर्वक शुभ तप करना चाहिए। तपस्या के उद्देश्य को न समझकर जो लोग बिना विवेक के केवल प्रसिद्धि, प्रतिष्ठा आदि की दृष्टि से मूढ़तावश दुराग्रहपूर्वक तप करने जाते हैं, वे गीता की भाषा में तामसिक या राजसिक तप करते हैं । गीता तो स्पष्ट कहती है मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः । परस्योत्सादनार्थ वा तत्तामसमुदाहृतम् ॥ सत्कारमानपूजाथं तपो दम्भेन चैव यत् । क्रियते तदिह प्रोक्तं, राजसं चलमध्र वम् ॥ -जो मूढतावश, दुराग्रहपूर्वक, केवल अपने को उत्पीड़ित करने, शरीर को तोड़फोड़ कर समाप्त कर देने की दृष्टि से या दूसरों को उखाड़ने या हैरान करने के अभिप्राय से तप किया जाता है वह तामस तप कहलाता है ।। जो तप सत्कार-सम्मान और पूजा, प्रतिष्ठा के लिए, दम्भ-दिखावा करके किया जाता है, वह राजस तप है, जोकि चंचल और अस्थायी है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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