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१३६ आनन्द प्रवचन : भाग १०
चूंकि अपनी आत्मा को शुद्ध आत्मतत्त्व या परमात्मतत्त्व में स्थिर रखना, जरा भी इधर-उधर न होने देना, बहुत बड़ा तप है, इसलिए व्यवहारदृष्टि से धवला में तप का लक्षण यों किया गया है
"तिण्णं रयणाणमाविब्भावट्ठमिच्छाणिरोहो तवो।" तीनों रत्नों (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र) को प्रगट करने के लिए (इष्टानिष्ट इन्द्रियविषयों तथा कषायों के) इच्छानिरोध को तप करते हैं।
प्रवचनसार में भी इसी आशय का लक्षण दिया गया है कि भावों में समस्त इच्छाओं का त्याग करके स्व-स्वरूप में प्रतपन करना (मन, इन्द्रिय, काय आदि का सनिरोध करना) तप है।
निष्कर्ष यह है कि आत्मप्रतपन यानी आत्मतेज या आत्मशक्ति को जाग्रत करना ही तप है । आत्मशक्ति के जाग जाने पर साधक मन, वाणी, काया, इन्द्रियों, बुद्धि आदि द्वारा उत्पन्न संस्कारों को ललकार सके, उनके (कर्मों के साथ युद्ध ठान कर उनकी शक्तियों को उधर जाने से रोककर शुद्ध आत्मस्वरूप में लगा सके, यही तप का उद्देश्य है।
संस्कारों (शुभाशुभ कर्मों) को ललकारने और उनके साथ युद्ध करने का तात्पर्य है-प्रतिकूल वातावरण में जाकर तपःसाधना करना, अथवा इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, शरीर आदि प्रतिकूल पथ पर---विपरीत प्रवाह पर जा रहे हों तो उन्हें रोकना और शुद्ध धर्म के अनुकूल प्रवाह या पथ की ओर द्वादशविध बाह्याभ्यन्तर तपों से मोड़ना ही तप है, यही इच्छा निरोध है ।
___मोक्ष पंचाशत् में यही बात मन-वचन-काया से होने वाले तप का वर्गीकरण करके कही गई है
तस्माद् वीयं समुद्र कादिच्छानिरोधस्तपो विदुः । __बाह्य वोक्कायसम्भूतमान्तरं मानसं स्मृतम् ॥४८॥
-विविध तपस्या द्वारा शक्ति का उद्रेक होने से इच्छानिरोध को तप कहते हैं जिसमें बाह्य तप वाणी और काया से होता है और आभ्यन्तर होता है मन से ।।
यद्यपि तप.साधना का प्रारम्भ अनुकूल वातावरण में करके आत्म-शक्ति में वृद्धि कर ली जाती है, तब इसी शक्ति के आधार पर प्रतिकूल वातावरण का सामना किया जाता है ।
इसलिए तप का प्रयोजन है-संस्कारों (शुभाशुभकर्मजनित) के साथ युद्ध ठानकर उनका मूलोच्छेद करना । तप के दो भेद भी इसी उद्देश्य से किये गये हैं। बाह्य तप से उन संस्कारों का विनाश किया जाता है जो कि शारीरिक कष्ट, दुःख, विपत्ति या संकट आ पड़ने पर व्यक्ति को समता और शान्ति से विचलित कर देते हैं तथा अन्तरंग तप से उन संस्कारों का विच्छेद किया जाता है, जो मानव के अन्तर् में विषयादि की इच्छाओं और कषायों के रूप में आविर्भूत होकर उसे विविध अपराध
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