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उनतप की शोभा : क्षान्ति–१
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कोई व्यक्ति मक्खन में से घी निकालना चाहे तो वह क्या करता है ? वह सर्वप्रथम कचरा, मैल या छाछ के अंश को अलग करता है, तत्पश्चात् उस बर्तन को आँच पर रखकर मक्खन को तपाता है, उसे पिघलाता है, और घी निकालता है। इसी प्रकार जीवनरूपी मक्खन में से कषाय, काम, मोह, विषय-वासना एवं तज्जनित कर्मों का मैल निकालने के लिए उपवास आदि तपों की आँच से शरीर, इन्द्रियाँ और मनरूपी बर्तनों को तपाया जाता है। इस प्रकार शरीर आदि को तपाने से विषय-कषाय, मोह, काम आदि विकारों तथा तज्जनित कर्मों का कचरा-मैल अलग हो जाता है । आत्मा शुद्ध, तेजस्वी, बलवान और गुण समृद्ध हो जाता है ।
निष्कर्ष यह है कि तप वह है, जिसके द्वारा बाह्य और आभ्यन्तर अर्थात् शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार के कुसंस्कारों या विकारों को विविध क्रियाओं द्वारा तपाकर निकाला जाय।।
संस्कार शोधन : तप ___ एक होते हैं-बाह्य कुसंस्कार (दुष्कर्म), जो स्थूल शरीर से सम्बन्धित हैं। बाह्य कुसंस्कार शरीर और इन्द्रियों से बनते हैं। शरीर जब बुरे कामों में (फिर वह चाहे हिंसा हों, झूठ हों, चौर्यकर्म हों, बेईमानी हो, अब्रह्मचर्य हो या ममतापूर्वक संग्रह वत्ति हो) प्रवृत्त होता है, तो उनसे जो कर्मबन्य होते हैं, उन्हें बाह्य तप द्वारा तपाकर रोका जाता है या नष्ट किया जाता है। इसी प्रकार आभ्यन्तर कुसंस्कार सूक्ष्म शरीर (मन, बुद्धि, हृदय आदि) से सम्बन्धित है, जिससे विविध प्रकार की बुरी इच्छाएं, बुरे (आत-रौद्रध्यानयुक्त) विचार, कामनाएँ, वासनाएँ जागृत होती हैं, उनसे भी राग-द्वेषवश कर्मबन्ध होते हैं, उन्हें आभ्यन्तर तप द्वारा तपाकर रोका जाता है या नष्ट किया जाता है । संक्षेप में-एक बाह्य तप है, जिसका प्रयोजन है बाह्य क्षेत्र के कुसंस्कारों का मूलोच्छेद करना और दूसरा है-आभ्यन्तर तप, जिसका प्रयोजन है, आभ्यन्तर क्षेत्रवर्ती कुसंस्कारों को नष्ट करना। संस्कार शुद्धि तप का प्रथम प्रयोजन है।
__ वास्तव में देखा जाय तो यह सारा तपन आत्मा को अपने शुद्ध रूप में निखारने के लिए है । इसीलिए नियमसार में तप का लक्षण बतलाया गया है
"प्रसिद्धशुखकारण परमात्मतत्त्वे सदान्तर्मुखतया प्रतपनं यत्तत्तपः।" "आत्मानमात्मन्यात्मना संधत्ते, इत्यध्यात्मं तपनम् ॥"
प्रसिद्ध शुद्ध कारण परमात्मतत्त्व में सदा अन्तर्मुख रहने में जो प्रतपन (मन, इन्द्रियों, बुद्धि, हृदय या शरीर को) होता है, वह तप है ।
अथवा आत्मा को आत्मा से धारण (टिका) कर रखता है जोड़े रखता है, वह अध्यात्म है, और इस प्रकार के अध्यात्मभाव में सतत (मन, बुद्धि, चित्त, इन्द्रियां, शरीर आदि को) रखना ही तप है।
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