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________________ १३० आनन्द प्रवचन : भाग १० जहाँ ८०० चलते-फिरते निर्जीव से शरीर रह रहे हैं । न उनमें आशा की चमक थी, न उत्साह की लहर । फादर डेमियन वहाँ पहुँचे तो १६०० भावहीन आँखें उनको ओर उठीं - आश्चर्य भाव से कि आगन्तुक कोढ़ी नहीं है, फिर यहाँ क्यों आया है । फादर डेमियन ने उन्हें शब्दों से नहीं, अपने कार्यों और व्यवहारों के द्वारा शीघ्र ही उनके दिमागों में यह बात बिठा दी कि वह उनकी भलाई के लिए उनके जीवन में दुःख बँटाने तथा सुख का संचार करने आया है । उन्हें यह भरोसा हो गया कि आगन्तुक उन्हें हृदय से प्यार करने आया है । फादर के प्यार ने कुछ ही दिनों में उन निष्प्राण-से मानवों में प्राण डाल दिये, उनके उदास चेहरे मुस्कराने लगे । साथ ही उन्हें ईश्वरीय प्रेम की अनुभूति भी करा दी, उनकी आत्मा में दिव्यचेतना भी प्रगट कर दी। उनके मन में जो हीनता की भावना थी, अपने आपको दण्डित और पापी मानते थे, वे सब फादर ने उनके जीवन में आत्मगौरव की भावना भरकर काफूर कर दी । कोढ़ियों का मन स्वर्गीय सुख से सराबोर हो उठा । मोलोकाई द्वीप एक आध्यात्मिक द्वीप बन गया । वहाँ के लोगों में आत्मशक्ति प्रगट हो गई । वहाँ पर आवास, अन्न, जल, विद्यालय आदि की सुन्दर व्यवस्था भी फादर ने की । प्रार्थना - गृह भी बनाया, जहाँ बैठकर सभी प्रतिदिन प्रार्थना करते थे और प्रवचन भी सुनते थे । सच्चे इन्द्रियजयो की तरह तत्त्वनिष्ठ फादर डेमियन ने बारह वर्षों तक अम्लान भाव से परमात्म-भक्ति समझकर कोढ़ियों की सेवा की और उन्हें उनके एक सच्चे साथी तथा प्रभुभक्त होने का अनुभव करा दिया । और एक दिन इस तत्त्वपरायण सुसाधु ने प्रसन्न चित्त से अपना पार्थिव शरीर छोड़ दिया । ऐसे तत्त्वपरायण सुसाध के जीवन को भला कौन उच्च कोटि का न कहेगा ? परन्तु इस प्रकार का उच्चकोटि का जीवन उनकी तत्त्वनिष्ठा से ही बन पाया, अन्यथा, कौन इस प्रकार का साहस करता ? तत्त्वनिष्ठ साधु दूसरों को भी तत्त्व समझाते हैं तत्त्वनिष्ठ सुसाधु मस्तिष्क को पूर्वाग्रह, राग-द्वेष या पक्षपात से दूर रखकर सोचते हैं और तदनुसार निष्पक्ष व्यवहार करते हैं, इस कारण उनका तत्त्वज्ञान बिना बोले या समझाये, सिर्फ उनके तत्त्वपरक आचरण से ही दूसरों को मिल जाता है। और वे प्रतिबुद्ध होकर अनुकूल बन जाते हैं । आर्य 'स्थूलभद्रजी के दो दशपूर्वधर शिष्य थे-आर्य महागिरि और आर्य सुहस्ति । आर्य महागिरि ने अनेक शिष्य बनाये, उन्हें शास्त्रीय वाचना दी और अत्यन्त वृद्ध हो जाने पर अपने गच्छ का भार आर्य सुहस्ति को सौंप दिया । जिनकल्पी वृत्ति का विच्छेद हो जाने पर भी स्वयं गच्छ की निश्राय में रहते हुए तत्त्वत: मन से निकल्पी वृत्ति से एकाकी विचरण करने लगे । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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