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सुसाधु होते तत्त्वपरायण
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वैष्णव भक्त नरसिंह मेहता ने एक कुत्ते को अपनी बनाई हुई रोटियों में से एक सूखी रोटी मुँह में दबाकर ले जाते हुए देखा तो वे उसके पीछे दौड़े घी की इंडिया लेकर । पुकारा - "अरे भगवान ! मुझे क्या पता था, आप इतने भूखे हैं । पर यह सूखी रोटी आपके गले में अटक जायगी, जरा घी से चुपड़ तो लेने दो ।" कहते है - जहाँ कुत्ता रुका, नरसिंह मेहता ने वह रोटी घी से चुपड़कर उसके सामने धर दी । नरसिंह मेहता की पारदर्शी दृष्टि कुत्ते में भी भगवान को देख रही थी । 'शुनि चेव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ' ( कुत्ते और श्वपाक - चाण्डाल में तत्त्वज्ञ पण्डित समदर्शी होते हैं), यह उक्ति यहाँ चरितार्थ हो रही थी और भगवान महावीर को 'एगे आया' की दृष्टि भी ।
परमार्थी तत्त्वनिष्ठ साधक अपने अधिकारों के लिए पुकार नहीं करता, वह अपने कर्तव्य और दायित्व को निभाता है, 'सियाराम मय सब जग जानी' का भावदीप उसके तत्त्वपरायण हृदय में जगमगाता रहता है । स्वार्थ उसके पास ही नहीं फटकता । वह परमार्थ में असीम आनन्द मानता है, दुःखों और कष्टों की भी परवाह नहीं करता ।
हवाई द्वीप की सरकार ने मोलोकाई नामक एक छोटे से टापू पर कोढ़ियों को बसा दिया था । कोढ़ से पीड़ितों को समस्त समाज से पृथक इस उत्तरद्वीप में निर्वासित करने के बाद वहाँ पहुँचे हुए व्यक्ति का शेष सारे संसार से सम्पर्क टूट
जाता था ।
तत्त्वज्ञ संत फादर डेमियन को इस बात का पता चला तो उन्होंने उन्हीं निर्वासित कोढ़ियों के बीच जाकर रहने की अपनी योजना बनाई । उनके हितैषीजन इसे देख सिहर उठे, उन्होंने वहाँ जाकर रहने की योजना को जानबूझकर आग में कूदना बताया और उन्हें मना किया। लेकिन फादर डेमियन तो तत्त्वद्रष्टा सन्त थे, प्राणिमात्र के प्रति उनकी आत्मीयता थी । उन्होंने कहा - "सरकार ने तो जनसुरक्षा की दृष्टि से उन्हें अलग बसाकर अपने कर्तव्य का पालन किया है, लेकिन हम भी उन्हें उपेक्षा की दृष्टि से देखें, तो यह अनैतिकता होगी। वे बेचारे शरीर के रुग्ण हैं तो क्या उन्हें अपनी आत्मा की दिव्यता जगाने का भी अवसर नहीं दिया जाना चाहिए ?
भी प्रभु के प्रिय बच्चे हैं । उन्हें हम शारीरिक सुविधाएँ न दे सकें तो क्या हृदय का प्यार भी न दें। और प्राणों के चले जाने का भय क्यों हो, जबकि हमने परमात्मा के प्रति अपना सर्वस्व समर्पण कर दिया है।"
और प्रसन्नता से वह चल पड़े मोलोकाई टापू की ओर । हितैषियों की आँखों आँसू थे, हृदय भारी था, किन्तु शुभकामनाओं से लबालब भरा हुआ ।
सन्त फादर डेमियन सिर्फ तैतीस वर्ष की उम्र में चले जा रहे थे कोढ़ियों के संसार में आग से खेलने । वे पहुँचे तो देखा - मोलोकाई द्वीप ऐसी जगह है, जहाँ एक ओर ऊँचे-ऊंचे पर्वत हैं, दूसरी ओर अथाह समुद्र है । बीच में थोड़ी-सी जगह है,
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