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________________ सुसाधु होते तत्त्वपरायण-२ १३१ एक बार आर्य महागिरि पाटलिपुत्र पधारे। आर्य सुहस्ति ने वहाँ वसुभूति सेठ को प्रतिबोध देकर जीवादि तत्त्वों का ज्ञाता श्रावक बनाया। वह जीवादि तत्त्वज्ञ श्रावक आर्य सुहस्ति की धर्मदेशना के अनुसार अपने कुटुम्ब को बोध देने लगा, परन्तु कोई भी तत्त्वबोध प्राप्त नहीं करता। सेठ ने आर्य सुहस्ति से प्रार्थना की-"गुरुदेव ! मेरा प्रतिबोध मेरे परिवार को लगता नहीं, अतः आप पधारकर प्रतिबोध दें तो अच्छा हो, आप विशिष्ट तत्त्वनिष्ठ सुसाधु हैं।" आर्य सुहस्ति सेठ के यहाँ पधारकर धर्मदेशना दे रहे थे। इसी दरम्यान आर्य महागिरि भी वहाँ भिक्षा के लिए पधारे। उन्हें देखते ही आर्य सुहस्ति ने खड़े होकर नमस्कार किया। यह देखकर सेठ बोला-"गुरुदेव ! आप तो जगद्वन्दनीय है, आपके भी कोई गुरु हैं, जिन्हें आप नमस्कार कर रहे हैं ?" आर्य सुहस्ति ने कहा- "ये आचार्यश्री मेरे तत्त्वबोधदाता गुरु हैं। मैं तो इनकी चरणरज भी शिरसा वन्द्य मानता हूँ। ये महातिमहान त्यागी हैं, सर्वथा उपेक्षित फैकने योग्य शुद्ध आहार ये ग्रहण करते हैं । इनमें तत्त्वबोध देने की प्रबल शक्ति है ।" इस प्रकार गुणगान करने से सेठ का सारा परिवार शीघ्र ही प्रतिबोधित हो गया। सेठ ने भी आर्य महागिरि के प्रति महाभक्तिवान होकर अपने परिवार को कह दिया"जब भी ये गुरुदेव भिक्षा के लिए पधारें, तब फैकने योग्य आहार कहकर इन्हें आहार-पानी देना।" दूसरे दिन आर्य महागिरि भिक्षा के लिए पधारे । सेठ के परिवार ने अत्यन्त आग्रहपूर्वक, यह आहार फेंकने योग्य है यों कहकर उन्हें भक्तिभाव से आहार देना चाहा । परन्तु आचार्य ने उपयोग लगाकर देखा तो उस आहार को अकल्प्य व सदोष जानकर ग्रहण न किया, आहार लिये बिना ही अपने धर्मस्थान में वापिस लौट गये। वे आर्य सुहस्ति को मधुर उपालम्भ देने लगे-"वत्स ! तुमने मेरा विनय तथा गुणगान किया, तथा वसुभूति सेठ के परिवार को उपदेश दिया, इससे उसका परिवार भक्तिवश होकर भिक्षा में मुझे अशुद्ध आहार देने लगा । तुमने यह अच्छा नहीं किया, वत्स !" यह सुनते ही तत्त्वनिष्ठ आर्य सुहस्ति ने आर्य महागिरि के चरणों में नमन करके अपने अपराध के लिए क्षमा मांगी और भविष्य में ऐसा न करने का वचन दिया। ___ यह है तत्त्वपरायण सुसाधुओं के जीवन व्यवहार का निदर्शन ! जहाँ एक भी तत्त्वपरायण सुसाधु रहता है, वहाँ जनता में विचार-जागृति आ जाती है । उसके निमित्त से अनेक लोग तत्त्वज्ञ बन जाते हैं, प्रतिबुद्ध हो जाते हैं और धर्म-प्रभावना के अनेक सत्कार्य करते हैं। सम्प्रति राजा ने आर्य सुहस्ति की प्रेरणा से पूर्वजन्म में मुनि-दीक्षा ग्रहण की थी, उसके प्रभाव से वह इस जन्म में उज्जयिनी का सम्राट बना । उसने आचार्यश्री के प्रति उपकृत भावना धर्म-प्रभावना करने हेतु आन्ध्र आदि अनार्य देशों में साधुवेशी सुभट भेजकर वहाँ की जनता को भद्र और साधुओं के प्रति भक्तिशील बना दिया। उसके बाद सम्प्रति राजा की प्रार्थना पर आर्य सुहस्ति अपने For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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