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________________ सुसाधु होते तत्त्वपरायण - १२३ नहीं किया जा सकता । पशु-पक्षियों की तरह अज्ञानग्रस्त मानव भी जैसे-तैसे इनका उपयोग-दुरुपयोग करके जीवन बिता देता है । इसमें न तो जीवन की सार्थकता है और न ही जीवन का सच्चा आनन्द ! इसी कारण तत्त्वज्ञान से रहित व्यक्ति अपने में निहित शक्तियों का सदुपयोग कर ही नहीं पाता । वह अपने सामने बड़ी-बड़ी विघ्नबाधाएँ या बाधक वस्तुएँ देखकर पस्तहिम्मत हो जाता है ! रामायण का एक प्रसंग है— हनुमानजी में अपार शक्ति मौजूद थी । उनका शरीर वज्रांग था । उनकी इन्द्रियाँ भी सशक्त थीं । अंगोपांग भी सुडौल थे । परन्तु तत्वज्ञान के अभाव में वे लंका पहुँचने के लिए समुद्र लाँघने का साहस नहीं कर रहे थे । जाम्बवन्त ने हनुमानजी को आत्मशक्तियों का तत्त्वबोध दिया तो शीघ्र ही खुशी - खुशी वे तैयार हो गये और सहज ही उस कार्य को सम्पन्न करने में सफल भी हो गये । हनुमानजी की उस सफलता में उनकी शक्तियों का तत्त्वबोध कराने में जाम्बवन्त का उद्बोधन महत्त्वपूर्ण रहा । अगर जाम्बवन्त के स्थान पर कोई और कायर या भीरु तत्त्वज्ञानहीन परामर्शदाता या उद्बोधक रहा होता, जो वह नाना आशंकाएँ व्यक्त करके उनमें निहित शक्तियों को कुण्ठित कर देता, उनका मनोबल गिरा देता । ऐसी स्थिति में उनके लिए समुद्र लाँघने का काम असंभव ही हो जाता । तत्त्वज्ञानी को कहीं न कहीं से सही मार्ग मिल जाता है तत्त्वज्ञान से रहित व्यक्ति के जीवन में जब उलझनें आती हैं, तो वह घबरा जाता है, किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है, लेकिन तत्त्वज्ञानी उलझनें आने पर, समस्या आ पड़ने पर घबराता या चिन्ता नहीं करता, वह तत्त्वदृष्टि से गहरा चिन्तन -मन्थन करता है और कोई न कोई रास्ता निकाल ही लेता है । तत्त्वज्ञानी इस अहंकार में नहीं रहता कि मैं सामान्य व्यक्ति से प्रेरणा क्यों लूं या इसे महत्त्व क्यों हूँ ? वह जहाँ कहीं से प्रेरणा मिले, ले लेता है। जैनशास्त्र में एक जगह बताया गया है, कि साधु को चक्रवर्ती की सामान्य दासी से भी बोध मिले या सत्य ( तत्त्व) मिले तो तो ग्रहण कर लेना चाहिए । उसके हृदय में सरलता और गुणग्राहकता होनी चाहिए । एक विचारक ने कहा है हे तत्त्वज्ञानी पुरुष, बात विचारि - विचारि । मथनहारि तजि छाछ को, माखन लेत निकारि ॥ तत्त्वज्ञ साधकों की तत्त्वग्रहण की यही पद्धति है । तथागत बुद्ध ने घोर तपस्या करके शरीर को कृश कर दिया था। फिर भी उन्हें प्राप्त नहीं हुई थी । वे किसी उपाय की खोज में थे, सतत चिन्तन करते रहते थे, कि मुझे कब और कैसे बोधि प्राप्त हो ? सभी लोग तपस्या से कृश हुए उनके शरीर को देखकर चिन्तित थे । एक दिन एक नर्तकी अपनी कुछ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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