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________________ १२४ आनन्द प्रवचन : भाग १० गायिकाओं के साथ उसी रास्ते से जा रही थी। वह रास्ते में अपनी साथिनियों को समझा रही थी-देखो ! वीणा के तारों को अत्यन्त मत कसो, बहुत अधिक कसने से भी तार टूट जाते हैं और आवाज अच्छी नहीं निकलती। इसी प्रकार वीणा के तार अत्यन्त ढीले नहीं होने चाहिए। क्योंकि तार ढीले होने से भी आवाज सुरीली नहीं निकलेगी।" नर्तकी ने फिर अपनी बात दोहराई–'वीणा ने तार न तो अत्यन्त कसे हों और न ही अत्यन्त ढीले हों। तार सन्तुलित अवस्था में हों, तभी वीणा से मधुर स्वर निकलता है।" नर्तकी की बात तथागत बुद्ध के कानों में पड़ी। पड़ते ही वे मन्थन में पड़ गये-शरीर भी तो वीणा के समान वाद्ययन्त्र है। इसके तार भी न तो अत्यन्त कसे जाने चाहिए, यानी शरीर को कठोर तप या कठोर यातना देकर इसे अत्यन्त कसना उचित नहीं, इसी प्रकार शरीररूपी वाद्ययन्त्र के तार अत्यन्त ढीले भी नहीं होने चाहिए । शरीर को विषयों में दौड़ने को अत्यन्त खुली छूट न दे दी जाए या न इसे अत्यन्त आरामतलब बनाओ, न ही आलसी, अकर्मण्य, सुस्त और प्रमादी बनाओ अन्यथा शरीर निकम्मा हो जायेगा। इसमें जो सत्कार्य करने का साहस, शक्ति, सत्त्व या क्षमता है, वह खत्म हो जायेगा। इस प्रकार की प्रेरणा नर्तकी से पाकर तथागत बुद्ध एकदम सतर्क हो गये। उन्होंने अपनी तपस्या समेट लेने का विचार कर लिया, और शरीर को यथोचित संयम में रखने लगे। इसी तत्त्वनिष्ठा से तथागत बुद्ध को मध्यम मार्ग मिला। हाँ, तो मैं कह रहा था कि तत्त्वज्ञानी साधक किसी समस्या या उलझन का कोई न कोई उचित हल निकाल ही लेता है, वह घबराता नहीं । तत्त्वज्ञानी अनिष्ट प्रवृत्ति में फँसा नहीं रहता ___ तत्त्वज्ञानी पहले तो किसी भी प्रवृत्ति की हेयोपादेयता या इष्टानिष्टता का भली भाँति विचार कर लेता है । वह सहसा किसी भी अनिष्ट प्रवृत्ति में फँसता नहीं, कदाचित् धोखे से या सरलता से कभी किसी प्रवृत्ति को इष्ट या उपादेय मानकर फँस भी जाए तो वह बूरे पर बैठने वाली मक्खी की तरह जब चाहे तब झटपट उस प्रवृत्ति को छोड़ देता है । वह मोहवश उस अनिष्ट प्रबृत्ति में फंसा नहीं रहता । इसके विपरीत तत्त्वज्ञान से शून्य व्यक्ति पहले तो प्रवृत्ति की हेयोपादेयता या इष्टानिष्टता का कोई विचार करता नहीं, कदाचित् कर भी ले तो भी जब एक बार किसी अनिष्ट प्रवृत्ति का चस्का लग जाता है तो फिर छूटता ही नहीं। उसमें गले तक वह डूब जाता है। मोहवश निकलना भी नहीं चाहता, भले ही वह प्रवृत्ति उसके लिए दुःखदायी हो। मैं एक व्यावहारिक उदाहरण द्वारा इसे समझा दूं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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