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________________ १२२ आनन्द प्रवचन : भाग १० का एक अंग है । वे तो नौकाएँ हैं, जो असम्भव को पार करने में सहायक होती हैं । रही बात बुराइयों की, हम उससे भागें क्यों ? स्वयं बुराइयाँ ही क्यों न भागें? हमारे भागने का मतलब है-सद्गुण और सज्जन दुर्गुणों और दुर्जनों से दुर्बल हैं, सत्य असत्य की अपेक्षा निर्बल है, तत्त्वज्ञान पर अज्ञान ने कब्जा कर लिया है।" महात्मा भी यों ही हार मानने वाले न थे, वे अपनी बात को पुष्ट करते हुए बोले- "हम यहाँ सद्गुणों की ही तो रक्षा कर रहे हैं, बुराइयों की ओर से आँखें मूंदकर । आप ही बताइए, क्या मैं भलाई को बुराई का ग्रास होने से नहीं बचा रहा हूँ ?" __ कन्फ्यूशियस ने कहा--"असम्भव महात्मन् ! जिस भलाई को आप समूह में बुराई के आगे पराजित करके आ गये वह भलाई यहाँ कैसे जीवित रह सकती है। यहाँ भी हिंस्र पशुओं की बुराई के आगे आप उसे समर्पित कर देंगे। हर वस्तु एकान्त में नष्ट हो जाती है, समूह में वह बहुगुणित होती है। अच्छा होता, आप समूह में रहकर अपने सद्गुणों का प्रकाश करते तो सद्गुणों की वृद्धि होती ? और वे वृद्धिंगत सदगुण दुर्गुणों को अवश्य ही पराजित कर देते। उसका प्रतिफल भी आपको देखने को मिलता। जनता तत्त्वपरायण साधुजनों का अनुसरण करती है। आप में वह प्रकाश स्पष्ट हुआ होता तो निःसन्देह बुराई की मात्रा घटती और अच्छाई की बढ़ती ।" आखिर तत्त्वज्ञानी कन्फ्यूशियस के सामने महात्मा निरुत्तर हो गये। निष्कर्ष यह है कि सच्चा तत्त्वनिष्ठ साधक बाधक परिस्थिति को देखकर हिम्मत हारता नहीं, और न ही वहाँ से भागता है । वस्तुतः मनुष्य में अनेक महत्त्वपूर्ण शक्तियाँ मौजूद हैं, परन्तु तत्त्वज्ञानी साधक उनका सदुपयोग करके गिरी हुई परिस्थितियों में भी निरन्तर प्रगति करके अनेक बाधाएँ पार कर सकता है, तथा उन्नति के उच्च शिखर पर पहुँच सकता है; पर जिसके जीवन में तत्त्वज्ञान का प्रकाश नहीं है, वह शक्तियाँ होते हुए भी अपने आपको शक्तिहीन मानता है, वह न तो शक्तियों का ठीक-ठीक उपयोग कर पाता है और न ही अपने मार्ग में आने वाली विघ्न-बाधाओं को पार कर सकता है, उसका उन्नति के उच्च शिखर पर पहुँचना तो और भी कठिन है । लोहा एक ठोस पदार्थ है । उसमें बहुत ही शक्ति निहित है। उससे बड़ी-बड़ी शक्तिशाली मशीनें बनाकर चलाई जाती हैं और उनसे बड़े-बड़े कार्य किये जाते हैं । परन्तु उसके साथ उस लोहे के तत्त्वज्ञान का जानकार व्यक्ति का स्पर्श हो, तभी उसका उत्तम उपयोग होता है। अन्यथा, कोरी मशीन पड़ी रहे, उसका चलाने वाला जानकार व्यक्ति न हो तो वह बेकार हो जाती है। इसी प्रकार मनुष्य शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, हृदय और आत्मा, इन सबका ठीक तरह से यथायोग्य संचालन और उपयोग करने वाला तत्त्वज्ञानी साधक न हो, तब तक इनसे कोई खास लाभ प्राप्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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