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सुसाधु होते तत्त्वपरायण-२ १२१ जिसके जीवन में तत्त्वज्ञान का प्रकाश हो गया है, वह चाहे जैसी बुरी परिस्थिति में से भी समझदारी से जीने का रास्ता निकाल लेता है, जबकि तत्त्वज्ञानहीन मानव उसी परिस्थिति में रहकर मन में क्लेश करता रहता है, कुढ़ता रहता है, दूसरों को कोसता रहता है और यों रोता-पीटता जिंदगी बिताता है। वह अच्छी परिस्थिति वाले स्थान में जायेगा तो वहाँ भी अपने अज्ञान और मूढ़ता के कारण उसे बुरी बना देगा, वहाँ भी दुःख और क्लेश में घुटता रहेगा।
चीन के प्रसिद्ध तत्त्वज्ञ सन्त कन्फ्यूशियस एक बार बड़े सबेरे पदयात्रा कर रहे थे । यात्रा करते-करते वे एक निर्जन स्थान में पहुँचे, वहाँ देखा कि एक महात्मा पेड़ की छाया में लेटे विश्राम कर रहे हैं। कन्फ्यूशियस ने पूछा-"महात्मन् ! हरी-भरी बस्ती को छोड़कर आप यहाँ जनशून्य एकान्त में क्यों पड़े हैं ?"
महात्मा ने उत्तर दिया-भद्र ! इस राज्य का राजा बडा दुष्ट है। वह स्वयं तो अकर्मण्य और अत्याचारी है ही, उसके राज्य में बहुत-से लोग स्वेच्छाचारी, अनुशासनहीन, कलहकारी, अत्याचारी, कुटिल और दुष्ट हो गये हैं। ऐसी स्थिति में मेरे जैसे शान्तिप्रेमी, सद्गुणों और आत्मशान्ति पर विश्वास रखने वाले व्यक्ति के लिए ऐसे समाज में रहना कठिन हो गया है। क्यों न आप भी यहाँ आकर एकान्त
और शान्त प्रकृति का आनन्द लूटते हैं ? अत्याचारों के कारण पैदा हुई निराशा से बचने का क्या यह सर्वोत्तम उपाय नहीं है ?"
कन्फ्यूशियस मुस्कराकर कहने लगे- "क्या थोड़ी-सी बुराइयों या बुरे आदमियों के कारण अच्छाइयों की रक्षा करना और उनसे लाभ उठाना तत्त्वज्ञ साधक का कर्तव्य नहीं है ? थोड़े-से व्यक्तियों के कर्तव्यच्युत हो जाने से क्या तत्त्वदर्शी भावनाशील साधकों को अपने कर्तव्य से मुंह मोड़ लेना चाहिए ? जब बुराई आगे बढ़ने से हार नहीं मानती तो क्या भलाई की शक्ति को हार मान लेना चाहिए ? अच्छाई की ताकत को भी अजमाना चाहिए। किन्तु उसको नपुंसक बनाकर भाग जाना तो बेहतर नहीं है ?"
महात्मा ने कहा-“सो तो ठीक है। मगर इतने झंझटों की अपेक्षा स्वयं बुराई से हट जाना क्या बेहतर नहीं है ? हम बुराई से स्वयं हटकर यहाँ अच्छाई का रसास्वादन कर रहे हैं ।"
कन्फ्यूशियस से कहा-"महात्मन् ! आप भूल रहे हैं कि झंझटों से भरा जीवन आपके जीवन का आधार है। नहीं, आपकी शान्ति अपने पास है । आप कहीं भी रहें, वह छीनी नहीं जा सकती। फिर आप यहां रहकर भी तो समाज की कमाई पर जीवित हैं, उसी के आश्रय से पल रहे हैं, जिस समूचे समाज को आप बुरा कह रहे हैं। क्या यह कृतघ्नता न होगी कि समाज से जीवन निर्वाह के लिए लेकर उसकी बुराइयों को सुधारने के अवसर पर आप मुख मोड़कर जंगल में भाग जाएँ। फिर आप जिन्हें झंझट कहते हैं, कष्ट और कठिनाई मान रहे हैं, वह तो आपकी साधना
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