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१२० आनन्द प्रवचन : भाग १०
गृहस्थसाधक भी मामूली साधनों में भी यहाँ तक कि अभावों में भी सुख-शान्ति और सन्तोष का जीवन व्यतीत कर लेते हैं, जीवन के सहज आनन्द को प्राप्त करते हैं । योगवाशिष्ठ (६ / ०१ / १४) में स्पष्ट कहा है
देहदुःखं विदुर्व्याधिमाध्याख्यं मानसामयम् । मौर्य मूलं हि ते विद्यात्तत्त्वज्ञाने परिक्षय ॥
अर्थात् . शारीरिक दुःखों को व्याधि और मानसिक दुःखों को आधि कहते हैं । ये दोनों दुःख अज्ञानमूलक हैं । तत्त्वज्ञान से ही ये दोनों दु:ख नष्ट होते हैं ।
वस्तुतः जिन साधकों के जीवन में तत्त्वज्ञान का प्रकाश होता है, वे बाह्य सुखसाधनों एवं सुविधाओं से निःस्पृह एवं निरपेक्ष रहते हैं, यथालाभ सन्तोष ही उनका जीवन-सूत्र हो जाता है ।
शुभाशुभ कर्मों से उत्पन्न होने वाले हर्ष - शोक, प्रसन्नता - विक्षोभ एवं मानसिक असंतुलन अतत्त्वज्ञ मनुष्य के मन और शरीर में तीव्र प्रतिक्रिया उत्पन्न करते हैं । हर्ष के प्रति आसक्ति और शोक से उत्पन्न होने वाली दुःखानुभूति, दोनों ही तत्त्वज्ञानशून्य मानव के मन को मोहित कर उसे विवेकशून्य बना देते हैं । इसका परिणाम होता है— गलत कार्य, गलतफहमी, गलत अनुभव, जिनका पर्यवसान होता है -- दुःख, द्वन्द्व, क्लेश, शोक आदि में । किन्तु जिस मनुष्य का अन्तःकरण तत्त्वज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित होता है, वह इन दोनों ही प्रपंचों से मुक्त रहकर आत्मस्थिर, निःस्पृह और आत्मतृप्त हो जाता है । तत्त्वज्ञानी किसी भी कार्य में लिप्त और आसक्त नहीं होता, वरन् तटस्थ एवं निष्कामभाव से अपने कार्य में लगा रहता है । इसलिए वह कर्म - बन्धनों से मुक्त हो जाता है ।
तत्त्वज्ञाननिष्ठ दुष्परिस्थितियों से भागता नहीं
साधारण तत्त्वज्ञान से रहित मनुष्य के सामने जब विपरीत परिस्थितियाँ आती हैं, तब वह वहाँ से भागने लगता है, वह समझदारी और सूझबूझ के साथ टिक नहीं पाता । जबकि तत्त्वनिष्ठ साधक कैसी भी प्रतिकूल परिस्थिति हो, वहाँ से हटता नहीं, दृढ़तापूर्वक डटा रहता है, परिस्थितियों को सुधारने का प्रयत्न करता है । तत्त्वज्ञाननिष्ठ साधक इस प्रकार से चिन्तन करता है कि यह संसार बहुत विस्तृत है । इसमें फूल भी हैं, काँटे भी हैं, पहाड़ भी हैं तो गहरे समुद्र भी हैं । मैदान हैं तो ऊबड़-खाबड़ घाटियाँ भी हैं । इस विविधतापूर्ण संसार में हर वस्तु का विरोधी भाव विद्यमान है | सद्गुण हैं तो दुर्गुण भी हैं, अच्छाइयाँ हैं तो बुराइयाँ भी हैं। माना अन्याय, अत्याचार, अनीति, अधर्म, हिंसा, असत्य, भ्रष्टाचार, बेईमानी आदि बुराइयाँ अधिक हैं पर क्या उनसे भागकर जगत् की शेष बहुत-सी अच्छाइयों और सन्तोषप्रद एवं श्रेयस्कर परिस्थितियों से मुँह मोड़ लेना ठीक है ? क्या विवेकी और दूरदर्शी मानव इस प्रकार से पलायन वृत्ति अपना सकता है ? कदापि नहीं ।
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