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आनन्द प्रवचन : भाग १०
में कर्मबन्ध कर लेता है, क्योंकि राग और द्वेष, ये दो ही मुख्यतया कर्मबन्धन के कारण हैं। वह जाति आदि के भेदभाव से युक्त होकर राग-द्वेषवश कर्मबन्ध करता है, तथैव इष्टवियोग-अनिष्टसंयोग के अवसर पर भी। परन्तु तत्त्वज्ञाननिष्ठ साधक क्रोध, अभिमान, लोभ, मोह, और मत्सर आदि के प्रसंगों में उत्तेजित, आसक्त एवं मूढ़ नहीं बनता, वह समभावपूर्वक शान्ति और विवेक के साथ अपना कदम बढ़ाता है । इसी प्रकार वह जाति, धर्म-सम्प्रदाय, भाषा, प्रान्त या संकीर्ण राष्ट्रवाद को कतई स्थान नहीं देता, और न परस्पर भेद करके एक दूसरे से घृणा, द्वेष, वैर या मोह करता है। वहाँ भी वह समभावपूर्वक व्यवहार करता है । 'पण्डिताः समदर्शिनः' की उक्ति ऐसे ही तत्त्वपरायण साधकों के लिए है। वह इष्टवियोग और अनिष्टसंयोगों के अवसर पर भी अपना सन्तुलन नहीं खोता, वह रोता-धोता नहीं, न आर्तध्यान करता है, इसी प्रकार अनिष्ट-वियोग एवं इष्टसंयोग के समय भी वह हर्षित होकर फूलता नहीं। यही कारण है कि वह राग-द्वोष से दूर रहने के कारण कारण कर्मबन्ध
नहीं करता।
योग वाशिष्ठ में कहा है
'विचारात् ज्ञायते तत्त्वं, तत्त्वाद् विश्रान्तिरात्मनि ।' "विचार से तत्त्वज्ञान होता है और तत्त्वज्ञान से आत्मा में शान्ति प्राप्त होती है।"
तत्त्वज्ञान से शून्य व्यक्ति इन्द्रियों के मनोज्ञ एवं प्रलोभनकारी विषयों के मिलते ही एकदम आकर्षित हो जाता है और उनमें फँस जाता है, जबकि तत्त्वपरायण साधक इन्द्रिय-विषयों की वासना और प्रलोभनों की तृष्णा के नचाये नहीं नाचते। वे इद्रियों के तत्त्व को भलीभाँति जानते हैं। यही कारण है कि तत्त्वज्ञानी साधक जब परिपक्व हो जाते हैं तब उन्हें कैसे भी आकर्षणकारी एवं प्रलोभनकारी वातावरण में रख देने पर भी वे लुब्ध नहीं होते।
कामविजेता स्थूलभद्र का नाम तो आपने सुना ही होगा। बारह वर्ष तक वे कोशा वेश्या के प्रणय-बन्धन में इस तरह फंसे रहे कि उन्होंने अपने पिता, भाइयों तथा सम्बन्धियों तक की भी सुध न ली और पिता की मृत्यु के बाद स्थूलभद्र को वासना से विरक्ति हो गई। यद्यपि कोशा ने अपने आप को तन-मन से स्थूलभद्र के प्रति समर्पित कर दिया था, फिर भी कोशा के प्रति उनका आकर्षण एकदम समाप्त हो गया और एक दिन कोशा के महलों में सौन्दर्य की अर्चना करने वाला स्थूलभद्र अब आत्मतत्त्व के साक्षात्कार के लिए चल पड़े, घरबार, पाटलिपुत्र, कोशा, कुटुम्बीजन आदि सबको छोड़कर।
स्थूलभद्र पंचेन्द्रिय विषयों के तत्त्वों का गहराई अध्ययन-मनन एवं निदिध्यासन करके लगे। पहले आत्मतत्त्व का दर्शन (स्पर्श), आत्मतत्त्व का अन्तर्दर्शन (ज्ञान) यानी उसका सभी पहलुओं से ज्ञान, और फिर वे आत्मतत्त्व के आनन्द के
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