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________________ ४६ सुसाधु होते तत्त्वपरायण-२ धर्मप्रेमी बन्धुओं! पिछले प्रवचन में मैंने इसी जीवनसूत्र के सम्बन्ध में प्रकाश डाला था। आज भी इसी जीवनसूत्र के अन्य पहलुओं के सम्बन्ध में मैं चर्चा करूँगा। पिछले प्रवचन में तत्त्व, उसका ज्ञान तथा तत्त्वज्ञानपरायणता के स्वरूप, तथा साधु-जीवन में तत्त्वज्ञान न होने से हानि एवं होने से लाभ के सम्बन्ध में अच्छे ढंग से विश्लेषण किया है। परन्तु इस सम्बन्ध में कुछ प्रश्न और अवशेष रह जाते हैं जैसे कि तत्त्वज्ञानी साधु बन्धन के प्रसंगों में भी कैसे बन्धनमुक्त रह जाते हैं ? अभावों में भी कैसे सुख मानते हैं ? तत्त्वज्ञानी पुरुष जीवन को किस समझदारी से बिताते हैं ? तत्त्वज्ञानी की पद्धति क्या है ? उसका पारमार्थिक, निष्पक्ष एवं सेवाभावी जीवन कैसा होता है ? शाश्वत सौन्दर्य, सुख, वैचारिक जागृति, अनासक्त कर्मयोग, समभाव आदि का तत्त्वज्ञान कैसा होता है ? तत्त्वज्ञाननिष्ठ साधु के जीवन में क्या विशेषताएँ होती हैं ? इत्यादि; इन प्रश्नों को मैं इस प्रवचन में क्रमशः स्पर्श करूँगा। तत्त्वज्ञान-परायण साधु के लिए बन्धन भी अबन्धन आपका यह तो प्रतिदिन का अनुभव है कि साधारण आदमी क्रोध का प्रसंग आने पर उत्तेजित हो उठता है, अभिमान या मद, फिर वह चाहे जाति का हो, प्रान्त का हो, राष्ट्र का हो, भाषा का हो, वर्ण का हो या धर्म-सम्प्रदाय आदि का हो, साधारण मनुष्य उसमें झटपट लिप्त हो जाता है। और भेदभाव के चक्कर में आकर वह राग-द्वेष से युक्त हो जाता है। अपने आप को शेष समाज के अलग मानने लगता है। इस प्रकार मानव-जाति के वह टुकड़े-टुकड़े कर देता है, उन टुकड़ों को केवल व्यवस्था हेतु सीमित रखे तब तक तो ठीक है, परन्तु उन टुकड़ों को वास्तविक और ईश्वरकृत मान लेता है, तब तो स्वार्थ, घृणा, अहंकार, मत्सर, क्रोध आदि उसमें आ जाता है । इसी प्रकार साधारण व्यक्ति इष्ट पदार्थ के वियोग एवं अनिष्ट पदार्थ के संयोग के अवसर पर शोकसंतप्त एवं विक्षुब्ध हो उठता है, तथैव इष्ट के संयोग और अनिष्ट के वियोग में हर्षित होकर फूल उठता है। तत्त्वपरायण साधक का रवैया कुछ दूसरा ही होता है, उसका दृष्टिकोण ही निराला होता है। जबकि साधारण आदमी क्रोधादि के प्रसंग पर तत्त्वज्ञान के अभाव Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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