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________________ ११० आनन्द प्रवचन : भाग १० साधु के पास आगम (तत्त्वज्ञान) रूपी नेत्र होता है। नेत्रविहीन व्यक्ति के लिए सारा लोक अन्धकारमय है, इसी प्रकार तत्त्वज्ञानहीन साधक के लिए इस संसार में जो भी कुछ उत्कृष्ट है, उसे देख सकना असम्भव है । इसीलिए भगवान महावीर ने अपनी ओजस्विनी वाणी में साधकों को कहा है नाणस्स सव्वस्स पगासणाए, अन्नाण-मोहस्स विवज्जणाए। रागस्स दोसस्स य संखएणं, एगंतसोक्खं समुवेइ मोक्खं ॥ "समस्त (तत्त्व) ज्ञान के प्रकाश से अज्ञान तथा मोह के दूर होते ही, जब राग और द्वेष का संक्षय हो जाता है तब साधक एकान्तसुखरूप मोक्ष को प्राप्त कर लेता है।" निष्कर्ष यह है कि तत्त्वज्ञान के आधार पर ही साधक श्रेय और पाप का, धर्म और कर्तव्य का, शुभाशुभ का, एवं उचितानुचित का तथा हेयोपादेय का विवेक कर सकता है। पापमय प्रलोभनों एवं इन्द्रिय-विषयों के आकर्षणों के पार अन्तः दूरवर्ती हित का देख सकना तत्त्वज्ञान से ही सम्भव है । इसीलिए महर्षि गौतम ने साधनामय जीवन के लिए तत्त्वज्ञानपरायणता जनिवार्य बताई है। 00 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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