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सुसाधु होते तत्त्वपरायण - १
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ऋषि सगर्व वोले – “हमारा प्रत्येक कार्य अपने उपास्य को समर्पित
होता है ।"
ब्रह्मचारी ने मन्दस्मित के साथ कहा - " तब तो आप मानते हैं न, कि यदि प्राणतत्त्व समस्त संसार में व्याप्त है तो, वह मुझ में भी है ?"
ऋषि अब निरुत्तर हो हार चुके थे । उनका अहं और स्थान अब विनम्रता लेती जा
गए । वे अनजाने ही इस युवक ब्रह्मचारी के समक्ष अज्ञान विगलित होता जा रहा था । आवेश का रही थी ।
शनक धीमे स्वर में बोला - "तुम सत्य कहते हो, ब्रह्मचारी ! अवश्य ही तुममें भी वही प्राण है, वही वायु व्याप्त है जो सारे संसार का आधार है ।"
ब्रह्मचारी संयत स्वर में बोला - "तो हे ज्ञानी ऋषियो ! आपने मुझे भोजन देने से इन्कार करके अपने इष्टदेव का ही अपमान किया है । चाहे भोजन प्रचुर मात्रा में हो, चाहे एक कणभर हो, मात्रा में अन्तर हो किन्तु उसके तत्व की एकरूपता में कोई अन्तर नहीं आता । आशा है, इस बात का कुछ और अर्थ न लगायेंगे ।"
सकता है, आप मेरी
ब्रह्मचारी का तत्त्वज्ञान से भरा उत्तर दोनों ऋषियों के हृदय में उतर गया । दोनों अत्यन्त लज्जित हुए खड़े थे । उन्होंने तत्काल अपनी भूल को सच्चे हृदय से स्वीकारते हुए विनम्र स्वर में कहा - "ब्रह्मचारी जी ! हमसे बड़ी भूल हो गई है । मालूम होता है, तुमने किसी योग्य गुरु से तत्त्वज्ञान पाया है । इसी कारण उम्र में हमसे छोटे होते हुए भी तत्त्वज्ञानी हो । अब कृपा करके हमारी कुटी में आओ और भोजन ग्रहण करके हमें अपनी भूल का प्रायश्चित्त करने का अवसर दो ।"
और वे दोनों ऋषि सादर उस ब्रह्मचारी युवक को कुटी में ले गये । पादप्रक्षालन करा कर अपने साथ बैठाकर ससम्मान भोजन कराया ।
उस दिन से वे अपनी पर्णकुटी में ऐसी व्यवस्था रखते कि कोई भी अतिथि या यात्री किसी समय आए, वे भोजन किये बिना न जाने देते । अब उन्हें अपने इष्ट देव की उपासना का तत्त्व - सच्चा स्वरूप समझ में आ गया था ।
बन्धुओ ! साधक की पात्रता की सच्ची कसौटी उसके तत्त्वज्ञान से होती है । समाज में चिरकाल तक उसी को प्रतिष्ठा मिलती है, जो साधक तत्त्वज्ञान से ओत-प्रोत हो ।
वस्तुतः मानवीय प्रतिभा का विकास, आध्यात्मिक उत्कर्ष और धर्म का अभ्युदय तत्त्वज्ञान से होता है । जितने भी महापुरुष हुए हैं, उनके महान व्यक्तित्व का विकास तत्त्वज्ञान से हुआ है । सार्थक साधक - जीवन की आधारशिला तत्त्वज्ञाननिष्ठा है । साधु के लिए तत्त्वज्ञान आत्मा का नेत्र कहा गया है । वह तत्त्वज्ञान आगमों से भी होता है । इसलिए समयसार में कहा गया है
'आगमचक्खू साहू'
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