SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०८ आनन्द प्रवचन : भाग १० दिन ढल रहा था। रम्य वनस्थली में एक पर्णकुटी में से कुछ धुंआ-सा उठ रहा था । कुटीर निवासी दो ऋषि शनक तथा अभिप्रतारी अपना भोजन तैयार कर रहे थे । वनवासियों का भोजन था-कुछ फल; कुछ दूध और थोड़े-से कंद-मूल । भोजन लगभग तैयार हो चुका था, केले के पत्तों पर उसे परोसा जा रहा था। तभी बाहर किसी के पैरों की आहट सुनाई दी। दोनों ने जानने का प्रयत्न किया-बाहर एक युवा ब्रह्मचारी खड़ा था । ऋषि ने पूछा-"कहो वत्स ! क्या चाहिए ?" ब्रह्मचारी युवक विनम्र स्वर में बोला- "आज सबेरे से मुझे कुछ भी प्राप्त न हो सका । मैं क्षुधा से अत्यन्त व्याकुल हूँ । यदि कुछ भोजन मिल जाता तो बड़ा अच्छा होता।" . कुटीर-निवासी कहने को ऋषि थे, पर तत्त्वद्रष्टा नहीं थे, उनका हृदय उदार कैसे होता ? अत्यन्त संकीर्ण हृदय के थे। मात्र सिद्धान्तवादी या यों कहिए तत्त्ववादी थे, तत्त्वदृष्टा नहीं। इसलिए उन्होंने रूखे और तीखे स्वर में कहा-"किसी गृहस्थ के यहाँ जाओ। यहाँ तो हम वनवासी अपने उपभोगभर का भोजन जुटाते हैं।" आगन्तुक को निराशा और मानसिक पीड़ा इस बात से नहीं हुई कि उसे भोजन न मिल सका था, अपितु इसलिए हुई कि अगर कोई सांसारिक मनुष्य इस प्रकार का उत्तर देता तो ठीक था, वह उसके भौतिकतावादी-मोहयुक्त दृष्टिकोण का परिचायक होता, लेकिन ये बनवासी ऋषि तो अपने आपको संसार की मोहमाया से परे और आध्यात्मिक तत्त्वज्ञान का अधिकारी मानते हैं, उनके द्वारा ऐसा उत्तर उचित न था । युवक ब्रह्मचारी यद्यपि पूरा तत्त्वनिष्ठ नहीं था, फिर भी तत्त्वबोध की किरण का स्पर्श उसे हो गया था। अतः चुपचाप चले जाने की अपेक्षा युवक ने उचित समझा कि इन अज्ञानमग्न ब्रह्मवादी ऋषियों को इनकी भूल का बोध करा दूं। अतः उसने उन्हें पुनः आवाज दी। झुंझलाते हुए दोनों ऋषि कुटिया से बाहर आये। तब युवक बोला-"क्या मैं यह जान सकता हूँ कि आप किस देव की उपासना करते हैं ?" यह सुनकर ऋषियों को तनिक क्रोध आ गया । इधर भोजन करने में विलम्ब हो रहा था, उधर उदर की जठरानि प्रदीप्त हो रही थी। अतः वे झल्लाकर बोले-"बड़े असभ्य मालुम होते हो जी, तुम ! समय-कुसमय नहीं देखते। हमारा इष्टदेव वायु है, जिसे प्राण भी कहते हैं।" __ "तब तो आप अवश्य ही जानते होंगे कि वह व्यापक है, जड़-चेतन सभी में ?" उस ब्रह्मचारी ने कहा । ऋषि बोले--"यह सब तो हमारे लिए जानना अनिवार्य है।" ब्रह्मचारी-"तब फिर यह भोजन आपने किसके निमित्त तैयार किया है ?" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy