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सुसाधु होते तत्त्वपरायण - -२ ११३
रूप में उसमें मन को रमण कराने लगे । जब उनकी तत्त्वनिष्ठा परिपक्व हो गई तो उन्होंने अपने गुरुदेव के चरणों में निवेदन किया- "गुरुदेव ! मैं अब कोशा को प्रतिबोध देने हेतु उसके यहाँ वर्षावास बिताने की आज्ञा चाहता हूँ ।" गुरुदेव ने उनके तत्त्वज्ञान की परिपक्व दशा देखकर सहर्ष आज्ञा दे दी ।
तत्त्वनिष्ठ स्थूलभद्र मुनि ने कोशा के भव्य भवन में प्रवेश किया । साधु वेष में भी तत्त्वज्ञानी स्थूलभद्र का देदीप्यमान चेहरा अत्यन्त सुन्दर लग रहा था । उनके मुखमण्डल पर तप-संयम का तेज कम आकर्षक न था । कोशा तो उन्हें देखते ही मुग्ध हो गई, वर्षों के अरमान पूरे होने की उसकी आशा जाग उठी । चिरविरह की धूप के बाद वर्षा का सुहावनापन जिस तरह मन को भा जाता है, वैसे ही स्थूलभद्र को अचानक आये देखकर प्रसन्नता से पागल सी हो उठी । उसके भवन में फिर से बहार आ गई ।
कोशा ने अपना सारा महल सुसज्जित, सुगन्धित और आकर्षक बनवा डाला । कोशा ने वे उत्तम वस्त्राभूषण धारण किये, जिन्हें ससुराल जाने से पूर्व दुल्हन पहली बार धारण करती है ।
तत्त्वज्ञ स्थूलभद्र के हृदय में पाँचों ही इन्द्रियों के मनोमोहक आकर्षण और प्रलोभनों के वातावरण में भी शान्ति, सन्तुलन एवं समता थी । वे निर्लिप्त भाव से अपने आत्मचिन्तन में बैठे थे । प्रत्येक वस्तु का यथास्थित स्वरूप वे जानते थे । विचलित होने का कोई प्रश्न नहीं था ।
परन्तु अब इससे भी अधिक विस्खलित कर देने वाला दृश्य उनके सामने उपस्थित था । सोलह शृंगारों से सजी रूपसी कोशा उनके समक्ष हाव-भाव, कटाक्ष एवं अभिनय के साथ नृत्य, गीत और वाद्यसहित उपस्थित थी । बहुत अनुनय-विनय किया उसने अपने भूतपूर्व हृदयेश्वर को रिझाने, मनाने का। लेकिन तत्त्वज्ञ स्थूलभद्र तो आत्मा के असीम सौन्दर्य में लीन हो गये थे । उन्हें कोशा का सौन्दर्य फीका लग रहा था । कोशा उन्हें एक चंचल बालिका -सी लग रही थी । वह आज हैरान थी कि उसके कामदेवता बोलते क्यों नहीं ? पूर्ववत् उन्हें उसके शरीर और सौन्दर्य पर मोह क्यों नहीं ? उसे क्या पता था कि स्थूलभद्र तो अब विनश्वर सौन्दर्य की अपेक्षा शाश्वत सौन्दर्य में लीन हैं । वे प्रत्येक आत्मा के आन्तरिक तत्त्व, अन्त:सौन्दर्य को निहारते हैं । फिर भी कोशा ने हिम्मत न हारी, आशा न खोई । उसने प्रतिदिन नित नये शृंगार सजे, गीत-नृत्य और वाद्य नव-नवीन स्वरों में प्रस्तुत किये, किन्तु कामविजेता स्थूलभद्र को वह जरा भी मोहित, चलित एवं विस्खलित न कर सकी। वे अपने आत्मतत्त्व पर चट्टान के समान दृढ़ रहे । तत्त्वज्ञ कामविजेता स्थूलभद्र मुनि के चातुर्मासिक सान्निध्य से कोशा का भी हृदय परिवर्तन हो गया । वह भी बाह्य सौन्दर्य की अपेक्षा आत्मिक सौन्दर्य की पुजारिन बन गई। उसने वृत्ति छोड़ दी । वह व्रतबद्ध श्राविका बन गई ।
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