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सुसाधु होते तत्त्वपरायण-१ १०५ साधक में तत्त्वज्ञान न हो तो सारे सुख, दुःख में बदल जाते हैं तत्त्वज्ञान संसार का सबसे बड़ा धन और सर्वश्रेष्ठ बल है। इसके अभाव में ही साधक बुराइयों की ओर बढ़ते हैं और उसके फलस्वरूप नाना प्रकार के दुःख उठाते रहते हैं।
किसी मनुष्य के पास धन हो तो वह संसार की मनचाही वस्तुएँ खरीद सकता है, किन्तु अगर उसे धन का ठीक तरह से उपयोग करना नहीं आता या उससे विषय-वासनाओं पोषण करके स्वास्थ्य को चौपट कर देता है तो वह उन मनचाही वस्तुओं का उपयोग नहीं कर सकता। अच्छी-अच्छी वस्तुएँ एक किनारे धरी रहेंगी, वह टुकुर-टुकुर देखता रहेगा, पर बीमारी होने से उनका उपभोग करना सम्भव न होगा, उनसे उसे परहेज करना होगा। ऐसा क्यों ? क्योंकि उस व्यक्ति में तत्त्वनिष्ठा नहीं है, इसी से सुख के साधन भी उसके लिए दुःख रूप में परिणत हो जाते हैं।
मनुष्य अपने बाहुबल से वड़ी से बड़ी सत्ता अजित कर लेता है । परन्तु यदि उसमें तत्त्वज्ञान का बल नहीं है तो सत्ता अर्जित करने का सुख भी दुःख में पलटकर संकट उत्पन्न कर सकता है।
एक राजा था। उसका राज्य बहुत विशाल था। पर उस राज्य की एक विचित्र परम्परा थी कि पांच वर्षों के बाद शासनासीन राजा को निकटवर्ती भयानक जंगल में छोड़ दिया जाता था, जहाँ बाघ,चीते, सिंह आदि खूख्वार जंगली जानवर उसे फाड़कर खा जाते और वह समाप्त हो जाता। उसकी जगह जो दूसरा राजा राजगद्दी पर बैठता, उसकी भी पाँच वर्ष बाद यही दुर्गति होती थी। राजा को राजमहल, वैभव, अन्तःपुर तथा नौकर-चाकर, सुख-सुविधाएँ, ठाठ-बाट आदि सभी सुखसाधन उपलब्ध थे, लेकिन तत्त्वज्ञान न होने से ये ही साधन उसके लिए मानसिक क्लेश और दुःख के कारण बन जाते थे। जब-जब राजा राजमहल के झरोखों से भयंकर जंगल की ओर देखता तो उसके मुंह से एक आह निकल पड़ती--"हाय ! ये सुख के साधन मेरे लिए क्या काम आएँगे ? पाँच वर्ष बाद तो मुझे इस दुःख की भट्टी-जंगल में छोड़ दिया जायेगा, मैं इन हिंसक जन्तुओं का भक्ष्य बन जाऊँगा।"
राजा इस प्रकार सुख के सभी साधन होते हुए भी तत्त्वज्ञान के अभाव में दुःखी था।
एक दिन उस राजा के राज्य में एक तत्त्वपरायण साधु आ गया। राजा ने सुना तो अत्यन्त श्रद्धाभक्तिपूर्वक साधु की सेवा में पहुँचा। जैसा कि भगवद्गीता में कहा है
'उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः' "अगर तू जिज्ञासु होकर तत्त्वदर्शी ज्ञानी के पास जाएगा, तो वे तुझे ज्ञानोपदेश देंगे।"
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