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________________ १०४ आनन्द प्रवचन : भाग १० और उपसर्ग, कठिआते हैं तो वह उस कर रहा हूँ, उसका परिणाम क्या आएगा ? क्या ऐसा करना साधु - जीवन के लिए उचित है । तत्त्वज्ञानहीन साधक के सामने जब अनेक परीषह नाइयाँ और विपत्तियाँ, कष्ट और संकट धर्मपालन के मार्ग में समय अपनी आत्मशक्तियों, आत्मगुणों और स्व-स्वभाव को नहीं विस्मृत कर बैठता है, परीषह, उपसर्ग आदि के आ पड़ने पर वह भाँति परिस्थितियों का सामना न करके उनसे मुख मोड़ लेता है और सुखसुविधा वाले किसी भी पाप मार्ग या अधर्म पथ पर चल पड़ता है अथवा अपनी शक्तियों को भूलकर कठोर परिस्थितियों में वह गिड़गिड़ाने, रोने-धोने या आर्तध्यान करने लगता है, जो कि एक प्रकार का पाप है । अथवा वह निमित्तों को कोसने लगता है कि अमुक व्यक्ति के ऐसा करने से हम पर संकट आए, विघ्न आए और विपत्तियाँ आयीं । इस प्रकार अमुक दुष्परिस्थितियों के लिए तत्त्वज्ञानहीन साधक दूसरों पर दोषारोपण करने लगता है । ये परिस्थितियाँ स्वयं की ही बनाई हुई हैं, ऐसा नहीं मानता । और इसी कारण बह अधिकाधिक मानसिक संक्लेश पाता है । अगर साधक में तत्त्वज्ञान का सामर्थ्य हो तो वह कैसी भो परिस्थिति और वातावरण में निर्भय रह सकता है, शक्तिहीन नहीं होता । जैसा कि दशवैकालिक सूत्र (अ० १०) में तत्त्वज्ञ भिक्षु जीवन के सम्बन्ध में कहा है जान पाता, उन्हें तत्त्वज्ञ साधक की जो सहइ हु गामकंटए, अक्कोस पहार तज्जणाओ य । भय-भैरव-सद्द - सप्पहासे, समसुहदुक्खसहे य जे स भिक्खू ॥ "जो साधक ग्रामकंटकों (गाँव में आने वाले कष्टों) को तथा आक्रोश, प्रहार, तर्जना ( डांट-फटकार), भय, भयंकर शब्द, भयंकर हंसी मजाक आदि को समभाव - पूर्वक सह लेता है, सुख और दुःख में सम रहता है, वही सच्चा भिक्षु है ।" बात यह है कि सुसाधु प्रत्येक वस्तु के तत्त्व को जानता है, वह कैसी भी परिस्थिति में अपने तत्त्वज्ञान के बल पर स्थिर रहता है, सन्तुलन नहीं खोता, अधीर होकर दूसरों को भला-बुरा नहीं कहता या आर्तध्यान नहीं करता । शास्त्रों में मुनि गजसुकुमाल, मैतार्य मुनि, हरिकेशबलमुनि आदि मुनियों पर मरणान्त कष्ट आने का वर्णन जब हम पढ़ते हैं तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं परन्तु अगर उनमें मृत्यु का तत्त्वज्ञान न होता तो क्या वे ऐसे भयंकर संकट के समय में समभावपूर्वक स्थिर रह सकते थे ? कदापि नहीं । अगर उनमें आत्म-तत्त्व की निष्ठा न होती तो वे भी दूसरों को कोसते, प्रहार करने या कष्ट देने वाले को शत्रु मानकर उसका सामना करते, उसे गाली देते या आक्रोश करते, उसकी शिकायत राजा या अधिकारी से करते अथवा उसे दण्ड दिलाते । परन्तु उनके जीवन में तत्त्वनिष्ठा कूट-कूटकर भरी थी । इसी कारण उन्होंने समभावपूर्वक मृत्यु का वरण किया । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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