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________________ ६६ आनन्द प्रवचन : भाग १० हम क्रमशः एक-एक प्रश्न को छुएँगे । सर्वप्रथम हमें समझ लेना चाहिए कि तत्त्व क्या है ? अगर हम विविध धर्म-सम्प्रदायों की दृष्टि से इसका उत्तर पाना चाहेंगे तो इसके अलग-अलग उत्तर मिलेंगे -. जैनशास्त्र कहते हैं— "जिणपणत्तं तत्तं" जिनप्रज्ञप्त ही तत्त्व है । बौद्ध-आगम कहते हैं - तथागत द्वारा निर्दिष्ट धर्म ही तत्त्व है । वैदिक धर्मशास्त्र वेद कहते हैं -- वेदविहित कर्म या आचरण ही (धर्म) तत्त्व है । इसलिए हमें तत्त्व शब्द के अर्थ पर व्यापक दृष्टि से विचार करना चाहिए, जिसमें किसी भी धर्म-सम्प्रदाय का विरोध न हो । 'तत्त्व' शब्द का व्युत्पत्त्यर्थ है 'तद्भावः अथवा तस्य भावः तत्त्वम्' "जिस वस्तु का जो भाव है, वस्तु स्वभाव है, वही तत्त्व है ।" तत्त्वार्थ सूत्र सर्वार्थसिद्धि के अनुसार 'योsर्थो यथावस्थितिस्तथा तस्य भवनमित्यर्थः ' "जो पदार्थ जिस रूप में अवस्थित है, उसका उस रूप होना यही यहाँ तत्त्व शब्द का अर्थ है ।" तत्त्वार्थराजवार्तिक के अनुसार 'अविपरीतार्थं विषयं तत्त्वमित्युच्यते' "अविपरीत ( सम्यक् ) अर्थ का विषय तत्त्व कहलाता है ।" जैन सिद्धान्तदीपिका के अनुसार 'तत्त्वं पारमार्थिकं वस्तु' "जो पारमार्थिक वस्तु है, वही तत्त्व है ।" मतलब यह है कि जो वस्तु जिस रूप में है, उसका जो सम्यक् रूप है, वही कहलाता है । उदाहरणार्थ - - पशु को समग्र का स्वरूप यानी पशुमात्र का तत्त्व है | किसी भी वस्तु का वस्तुत्व ही तत्त्व जिन गुणों के कारण पशुसंज्ञा प्राप्त हुई है, उस सामान्य तत्त्व-पशुत्व कहलाता है । साधारण मनुष्य वस्तु को ऊपर-ऊपर से स्थूल रूप में देखता है। वह उस वस्तु का बाह्य तत्त्व है । बाह्य तत्त्व क्या है ? बाहर का ढाँचा है, बाहर का आकार - प्रकार है । परन्तु उसका अन्तरंग रूप कुछ और होता है, वह विशेषतः गुणों से ही सम्बन्धित होता है । उसे अन्तस्तत्त्व कहते हैं । यद्यपि वस्तु को बाह्य स्थूलरूप से भी जाननादेखना आवश्यक है, क्योंकि वस्तु के बाह्य रूप को देखे बिना उसके साथ ठीक से व्यवहार नहीं हो सकता । संसार का सारा व्यवहार बाह्यरूप पर आधारित है । जैसे कोई व्यक्ति किसी घोड़े को खरीदता है, तो वह उसके बाह्य रंग-रूप, चाल-ढाल, आकृति - प्रकृति और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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