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सुसाधु होते तत्त्वपरायण – १
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गुरुजी का देहान्त हो गया । अतः गिरिजी ने विचार किया— अब मुझे पुरानी परम्पमपराओं में कुछ सुधार करना चाहिए, कथा-कीर्तन और भजनोपदेश द्वारा लोक जागृति करनी चाहिए । समाज कल्याण की कुछ प्रवृत्ति भी करनी चाहिए, आत्मसाधना भी बढ़ानी चाहिए । साधु जीवन कलंकित न हो, इस प्रकार के कुछ उपयोगी कार्य करने चाहिए | साधु के दायित्व का भी निर्वाह करना चाहिए ।
उन्होंने कुछ शिक्षित और विचारशील सज्जनों से परामर्श करके सबसे पहले मन्दिर एवं उसके आसपास की जगह की सफाई का कार्य ग्रामीणजनों के सहयोग से स्वयं किया। फिर मन्दिर में नियमित भजन-कीर्तन एवं प्रार्थना की व्यवस्था की । जो बालक, युवक और वृद्ध पहले अपने खाली समय का उपयोग झगड़े, राजनैतिक चर्चाबाजी तथा दुर्व्यसनों में बिताते थे, वे अब उन बुराइयों से बचने लगे । लोक मनोरंजन के साथ-साथ धर्मभावना, भक्तिभावना एवं परस्पर आत्मीयता बढ़ने लगी । लोगों में परस्पर सहयोग, संगठन और समाज-सुधार की लहर दौड़ गई । फलतः अवांछनीय कुरूढ़ियों और खोटे रीति-रिवाजों को तोड़ने का दौर शुरू हो गया। मृतक भोज, शादी-विवाहों आदि में अपव्यय, जेवर कपड़ों का मौह, कर्जदारी, बालिकाओं को न पढ़ाने, बाल-विवाह आदि अन्धमान्यताओं और कुरीतियों में एकदम परिवर्तन आ गया । जनता में शराब, मांसाहार, जुआ, चोरी, व्यभिचार, लूट-पाट आदि दुर्व्यसनों में कमी आने लगी । पारिवारिक जीवन में नये आदर्शों और मान्यताओं को लोग क्रियान्वित करने लगे ।
स्वामी सोमदत्त गिरि ने इस प्रकार अपनी साधना के साथ ग्रामीणों की श्रद्धाभक्ति में वृद्धि करके समाज कल्याण के कई कार्य किये तथा उनकी प्रेरणा से गाँव का कायापलट सा होने लगा ।
इस प्रकार उन्होंने मन्दिर को समुन्नत और स्वावलम्बी संस्था का रूप प्रदान किया; साथ ही उसके माध्यम से साधु का कर्तव्य और दायित्व भी निभाया ।
अपने गुरु की साधुता के कर्तव्य एवं दायित्व की उपेक्षा को उन्होंने पूर्ण रूप से दूर करके, जनता में साधु के प्रति श्रद्धा भावना विकसित की ।
गहराई से सोचा जाए तो स्वामी सोमदत्त गिरि में जो असाधुता से सुसाधुता आई, उसके पीछे उनका अन्तःस्फूर्त तत्त्वज्ञान ही विशिष्ट कारण था । तत्त्वज्ञान ने ही सोमदत्तगिरि को आगे बढ़ने और साधु जीवन के दायित्व एवं कर्तव्य का निर्वाह करने के लिए प्रेरित किया ।
इसलिए सुसाधु और कुसाधु या असाधु के निर्णय के लिए गौतम महर्षि ने सबसे महत्त्वपूर्ण थर्मामीटर बताया है - तत्त्वज्ञानपरायणता को । उसका आशय यही है कि सुसाधु तत्त्वज्ञानपरायण होता है ।
तत्त्व क्या ? उसका ज्ञान क्या ? तत्त्वपरायणता क्या ?
जब सुसाधु में तत्त्वज्ञानपरायणता आवश्यक है, तब यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि तत्त्व क्या है ? उसका ज्ञान क्या है ? तत्त्वज्ञानपरायणता क्या है ?
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