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सुसाधु होते तत्त्वपरायण-१ ९७ व्यवहार को देखता है, वह घोड़े के अन्तरंग तत्त्व को नहीं देखता है कि घोड़े में भी मनुष्य की तरह आत्मा है, वह भी पंचेन्द्रिय है, उसके भी मन है, उसके साथ भी हमारी तरह सुख-दुःख लगे हुए हैं, उसे भी हमारी तरह सुख प्रिय है, जीना पसन्द है, उसे भी जीने के लिए भोजन तथा रहने के लिए अन्य सुविधाएँ चाहिए।
हाँ तो, घोड़े का बाह्य रंग-रूप आदि बाह्य तत्त्व है और अन्तरंग बातें, परमार्थ, स्वभाव आदि अन्तस्तत्त्व है । केवल अन्तस्तत्त्व से ही काम नहीं चलता, बाह्य तत्त्व भी आवश्यक है। घोड़े के केवल अन्तरंग रूप से ही काम नहीं चलता, उसे अपने अस्तित्व को टिकाने, तथा अश्वरूप में अपने को व्यक्त करने के लिए बाह्य रूप भी आवश्यक है । इसी प्रकार बाह्य रूप का शुद्ध और अपना असली रूप, जिसकी शक्ति और प्रकाश के सहारे बाह्य रूप टिका हुआ है, वह उसका अन्तरंग रूप है । दोनों ही तत्त्व परस्पर सहायक हैं।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा में आध्यात्मिक तत्त्व के सम्बन्ध में कहा गया है
____ 'अन्तरतच्चं जीवो, बाहिरतच्चं हवति सेसाणि ।' "जीव (आत्मा) अन्तस्तत्त्व और बाकी सब द्रव्य बहिस्तत्त्व हैं।"
यह जो अन्तस्तत्त्व और बहिस्तत्त्व का स्वरूप बताया है, वह चेतनावान द्रव्यों की अपेक्षा से बताया गया है । संसार के सारे द्रव्यों-चेतन हों या अचेतन-की अपेक्षा से तो अन्तस्तत्त्व का पहले बताया लक्षण ही ठीक है।
वस्तुतः प्रत्येक पदार्थ का अन्तस्तत्त्व ही वास्तविक तत्त्व है। इसीलिए पंचाध्यायी में तत्त्व शब्द का लक्षण अन्तस्तत्त्वपरक दिया गया है
तत्त्वं सल्लाक्षणिकं सन्मानं वा यतः स्वतः सिद्धम् ।
तस्मादनादिनिधनं स्वसहायं निर्विकल्पं च ॥८॥ "तत्त्व का लक्षण सत् है, अथवा सत् ही तत्त्व है; क्योंकि वह स्वभाव से ही सिद्ध है, अतः अनादिनिधन है, वह स्वसहाय है और निर्विकल्प है।"
तच्च तह परमठें दध्वसहावं तहेव परमपरं ।
धेयं सुद्ध परमं एयट्ठा हुँति अभिहाणा ॥ 'नयचक्र ग्रन्थ' के इस वचन के अनुसार तत्त्व के पर्यायवाची (समानार्थक) शब्द ये हैं—परमार्थ, द्रव्यस्वभाव, परमपर, ध्येय, शुद्ध और परम । इस दृष्टि से तत्त्व शब्द से वस्तु का अन्तःस्वरूप ही सिद्ध होता है।
तत्त्वज्ञान : सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान उस तत्त्व का दर्शन एवं ज्ञान दोनों मिलकर तत्त्वज्ञान है। इसी को दूसरे शब्दों में सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान कहते हैं । दर्शन वस्तु को निराकार रूप में जानने का नाम है और ज्ञान वस्तु को साकार रूप में जानना है। सम्यग्ज्ञान वस्तु का जैसा हो वैसा, यथार्थ, निराकार और साकार ज्ञान है और ऊपर-ऊपर से वस्तु का जो
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