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________________ मूर्ख नर होते कोपपरायण ८३ क्षति या हानि होती ही क्यों ? इसमें मूल दोष तो मेरे कर्मों का या उपादान का है, निमित्त तो कोई भी बन सकता है, यह नहीं तो अन्य कोई निमित्त बनता। मेरी पात्रता जितनी थी, उतना मुझे मिल गया, इसमें दूसरों को दोष देने से क्या लाभ ? एक रूपक द्वारा इसे स्पष्ट कर दूं- पहाड़ी झरना अपनी मस्ती में बहा जा रहा था, न जाने किधर और क्यों ? गाँव की एक किशोरी आई और उसने अपना कटोरा पानी से भर लिया । तभी घड़ा लिए आई एक दुल्हन । उसने अपना घड़ा भर लिया और सामने दूसरे तट पर खड़ी हो गई । किशोरी ने जब अपने कटोरे की ओर देखा तो घृणा से देख झरने की ओर घूर कर कहा - "तुम बड़े बेइन्साफ हो जी !” झरने ने पूछा - "क्यों क्या बात है ?" किशोरी ने रोष में आकर कहा - "देखते नहीं, उस दुल्हन को तो तुमने इतना पानी दे दिया कि वह बोझ से दबी चले, और मुझे दिया चार चुल्लू पानी ।” किशोरी ने झरने का उत्तर सुने बिना ही एकदम गुस्से से उबलकर अपने कटोरे का पानी धरती पर फेंक दिया। झरना कुछ कहने को ही था कि एक भिश्ती वहाँ आकर खड़ा हो गया । उसने अपनी भारी मशक पानी से भर ली । झरने के अट्टहास से दिग्मंडल गूंज उठा। किशोरी लिये खड़ी थी । वह कभी झरने पर, कभी दुल्हन पर और आकर तानाकशी कर रही थी कि झरने ने मुझे पानी कम और भिश्ती ने पानी इतना अधिक क्यों ले लिया ? अपना खाली कटोरा कभी भिश्ती पर गुस्से में क्यों दिया ? इस दुल्हन यह रूपक ठीक उस मूर्ख पर घटित होता है, जो अपना पात्र नहीं देखता कि वह कितनी योग्यता या क्षमता वाला है ? और दूसरे अधिक योग्य व्यक्तियों को जीवन घट में सुख रूपी जल लेते देखकर उनसे ईर्ष्या करता है, कभी भगवान को और कभी अपने अन्य अधिकारी या साथियों को कोसता है । कभी-कभी रोष में आकर जीवन घट में रहे - सहे सुखरूपी जल को भी फेंक देता है और कुढ़ता रहता है । इसीलिए विदुरनीति में ऐसे व्यक्ति को मूढ़तम कहा है परं क्षिपति दोषेण, वर्तमानः स्वयं तथा । यश्च क्रुद्ध यत्यनीशानः, स च मूढतमो नरः ॥ "जो व्यक्ति स्वयं दोषयुक्त हुआ भी दूसरों पर दोष मढ़ देता है; स्वयं अयोग्य या असमर्थ होता हुआ भी दूसरे पर रोष करता है, वह मनुष्य सबसे बड़ा मूर्ख है ।" धम्मपद में अपनी योग्यता - अयोग्यता न जानने वाले को मूर्ख कहा है जो बालो मञ्ञति बाल्यं, पंडितो चापि तेन सो । बालो य पण्डितमानी, स वे बालोति वुच्चति ॥ "जो मूर्ख अपनी मूर्खता को जानता समझता है, उतने अंश में वह पंडित है, असली मूर्ख तो वह है, जो मूर्ख होते हुए भी अपने आपको पण्डित समझता है ।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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