SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 106
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८२ आनन्द प्रवचन : भाग १० बोलती बन्द हो गई। उसने इस दुःख से आत्महत्या कर ली, उसके पीछे उसके ससुर, पति और स्वयं को भी आत्महत्या करनी पड़ी। कितना भयंकर रूप है मूर्ख के कोप और तज्जनित मर्मोद्घाटन का ? छिद्रान्वेषक और मर्मोद्घाटक मूर्ख कोपावेश में आकर भयंकर अनर्थ कर बैठता है । एक भारतीय मनीषी ने ठीक ही कहा है __"आत्मच्छिद्रं न पश्यति, परच्छिद्र पश्यति बालिशः।" "मूर्ख अपना छिद्र (दोष) नहीं देखता, वह दूसरों के छिद्र देखने की ताक में रहता है।" संस्कृत साहित्य में एक नीति कथा आती है—एक जगह दो सौ में लड़ाई हो गई। लड़ाई इतनी भयंकर हुई कि दोनों सर्प अपना आपा खो बैठे। दोनों एक दूसरे को नष्ट करने तथा उनकी बाँबियों को समाप्त करने पर तुल गये । एक सर्प ने गुस्से में आकर कहा-"तू क्या बढ़-बढ़कर बात करता है, अगर तेरी बाँबी में गर्मागर्म तेल डाला जाए तो तेरा सारा आश्रय-स्थान ही खत्म हो जाए।" दूसरे सर्प ने भी क्रुद्ध होकर उसका छिद्र प्रगट करते हुए कहा-"हाँ, हाँ, मैं भी जानता हूँ, तेरे विनाश का उपाय । अगर तेरी बाँबी में जलती हुई लकड़ी डाली जाए, तो तेरा पता भी न लगे।" इन दोनों मूर्ख सर्पो की बातें कोई सुन रहा था। उसने एक की बांबी में गर्मागर्म तेल डाला, जबकि दूसरे सर्प की बाँबी में जलती हुई लकड़ी डाली। इससे दोनों छिद्रोद्घाटक मूर्ख सों का सर्वनाश हो गया । यह है-मूर्खता का भयंकर नमूना। इसी प्रकार के कई मूर्ख होते हैं जो एक-दूसरे का छिद्र-रहस्य खोलकर अपने विनाश को न्यौता दे देते हैं। अपना दोष दूसरों के सिर मढ़ना-मूर्ख का लक्षण ., मों के कुपित होने का चौथा कारण है-अपनी हानि होने पर दूसरों (निमित्तों) पर दोषारोपण । प्रायः देखा जाता है कि जब अपनी कोई हानि या क्षति अपनी ही गलती से हो जाती है तो मूर्ख लोग दूसरों पर उसका सारा दोष डाल देते हैं। वे अकसर कहने लगते हैं-अमुक ने ऐसा किया, इसलिए मेरा इतना नुकसान हो गया। अमुक ऐसा नहीं करता तो मेरा इतना नुकसान क्यों होता । इस प्रकार उस निमित्त को दोषी और अपराधी मानकर मूर्ख व्यक्ति उस पर रोष करता है, उसे डाँटता-फटकारता है, उसे गुस्से में आकर भला-बुरा कहता है, मारता-पीटता भी है। इस प्रकार निमित्तों को कोसकर मूर्ख उन पर अपना गुस्सा उतारता है, परन्तु वह यह नहीं देखता कि इस कार्य के बिगड़ने या इसमें हानि या क्षति होने में मेरा कितना दोष या अपराध है ? मेरी कितनी व्यावहारिक भूल हुई है ? या मैं किस हद तक इसमें उत्तरदायी हूँ ? मेरा उपादान शुद्ध होता या मेरे कर्म शुभ होते तो यह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy