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________________ मूर्ख नर होते कोपपरायण ८१ क्षणे रुष्टा :क्षणे तुष्टा कई बार ऐसे मूर्ख क्षणभर में तुष्ट और दूसरे क्षण रुष्ट हो जाते हैं। उनकी प्रसन्नता भी भयंकर होती है और रोष भी। उनके पल्ले कुछ भी नहीं पड़ता, फिजूल तू-तू-मैं-मैं करके अपना सिर खपाते रहते हैं। ऐसे मूों के लिए गुजराती में एक कहावत है 'भैस भागोले, छास छागोले ने घेर धमाधम ।' _ एक किसान ने अपने खेत पर दो मजदूर लगा रखे थे, दोनों आपस में मामाभानजे थे । खेत में फसल लहलहा रही थी, दोनों मजदूर अपने श्रम का सुन्दर फल जानकर प्रसन्न हो रहे थे कि अचानक पासा पलटा । मामा ने कल्पना के घोड़े दौड़ाते हुए कहा-इस खेत में दो टन गेहूं निकलेंगे। भानजा कहने लगा-दो टन ही क्यों, तीन टन निकलेंगे । आपका अंदाज गलत है। इसी बात पर दोनों में मतभेद खड़ा हो गया और तू-तू-मैं-मैं होने लगी। अन्त में विवाद इतना उग्र हो गया कि दोनों हाथा-पाई पर उतर आये । एक समझदार पड़ौसी किसान वहाँ आया, उसने डांटकर कहा-'अरे मूर्यो ! मेहूँ जितने भी होंगे, मालिक के होंगे, तुम्हें तो केवल मजदूरी ही मिलेगी, फिर क्यों आपस में सिर-फुटौव्वल मचा रहे हो ?' दोनों बहुत शर्मिन्दा हो गये और चुप होकर पश्चात्ताप करने लगे। इसी प्रकार मूों का जीवन क्षणे रुष्ट और क्षणे तुष्ट के झूले में झूलता रहता है। कलहप्रिय एवं छिद्रान्वेषक-मूर्ख मूरों के कुपित होने का तीसरा कारण है-कलह और छिद्रान्वेषण । मूल् की आदत होती है, बात-बात में तकरार और कलह करने की। जिस समय वे तकरार करते हैं, उस समय भान भूल जाते हैं, परिणाम का विचार नहीं करते और दूसरों के द्वारा उत्तेजित किये हुए साँड़ों की तरह वे परस्पर लड़ने लगते हैं। इसमें गुस्से का तो उफान चलता ही है। गुस्से में आकर एक-दूसरे की शिकायत करने लगते हैं, छिद्र भी प्रगट करने लगते हैं। हालाँकि परस्पर एक दूसरे का छिद्र प्रगट करने में उन दोनों की भारी हानि होती है । पर मूर्ख इस बात को क्यों सोचने लगा? ___ सास-बहू में प्रायः प्रतिदिन जमकर लड़ाई होती थी। दोनों आक्रोशपूर्वक एक-दूसरे को कटुवचन, व्यंग एवं तानाकशी करती थीं। बहू इसी फिराक में थी कि सास का कोई ऐसा छिद्र मिल जाये तो उसे इतना दबा दूं कि फिर बोल न सके । एक दिन उसे सास के जीवन की एक दुर्बलता का पता लग गया, बस फिर क्या था, तकरार होते ही बहू ने क्रोधावेश में आकर वचन का तीर छोड़ दिया—'मैं जानती हूँ, तुम कैसी पतिव्रता हो । अब तुम बढ़-बढ़कर बातें कर रही हो। ससुरजी को कुएँ में धकेला था, उस दिन पतिव्रतापन कहां चला गया था ?" बस, सास की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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