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________________ ६६ आनन्द प्रवचन : भाग ६ कार्य में श्रेय और सफलता शुद्धबुद्धि वाले को मिलती है। साथ ही कार्य में आने वाली मलिनता या बिगाड़ को वह धो-पोंछकर साफ कर देती है। शुद्धबुद्धि मनुष्य के सुसंस्कारों और पवित्रता की रक्षा करती है। शुद्धबुद्धि मनुष्य को कार्याकार्य, हिताहित एवं धर्म-अधर्म का प्रकाश करा देती है, जिससे मनुष्य गलत मार्ग पर जाने से, गलत कदम उठाने से रुक जाता है । बुद्धि से यहाँ सात्त्विक और स्थिरबुद्धि ही ग्राह्य प्रस्तुत जीवनसूत्र में श्री गौतम ऋषि सात्त्विक और स्थिरबुद्धि की ओर ही इंगित करते हैं, अन्यथा तामसी या राजसी बुद्धि तो हर व्यक्ति आसानी से प्राप्त कर लेता है। मैं पहले जिक्र कर गया हूँ कि आज मानव की बुद्धि बहुत ही पैनी, तीव्र और बढ़ी हुई है, पर वह है—अनियंत्रित, उच्छृखल और स्वच्छन्द तथा चंचल । भगवद्गीता (२।४०) में इसी बात का संकेत मिलता है ___ व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन ! बहुशाखा हनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् । हे अर्जुन ! स्वपर-कल्याण मार्ग में निश्चयात्मिका स्थिरबुद्धि एक ही है। अनिश्चयी एवं सकामी चंचल पुरुषों की बुद्धियाँ बहुत प्रकार की अनन्त होती हैं । ____एक पाश्चात्य विचारक कालेरिज (Coleridge) के शब्दों में ऐसी सात्त्विक बुद्धि का लक्षण देखिये "Common-sense in an uncommon degree is what the world calls wisdom." "जिसे संसार बुद्धि कहता है, वह है—असाधारण मात्रा में साधारण ज्ञान ।” सात्त्विक बुद्धि की विशेषता ऐसी सात्त्विक बुद्धि जिसमें होती है, उसे दूसरों का आशय समझते देर नहीं लगती । वह आदमी की बोली और चाल को देखकर उसका आशय भाँप जाता है। बंगाल के महाराज कृष्णचन्द्र के दरबार में एक सीधा-सादा, सरल किन्तु अत्यन्त बुद्धिमान दरबारी था। उसका नाम था गोपाल । एक दिन की बात है, सुदूर दक्षिण से एक बहुत बड़ा विद्वान राजसभा में आया। वह अठारह भाषाओं में मातृभाषा की तरह धाराप्रवाह बोल सकता था। कोई व्यक्ति सहसा नहीं जान सकता था कि उसकी असली मातृभाषा कौन-सी है ? गोपाल ने इसका पता लगाने का बीड़ा उठाया। उसने उक्त विद्वान् को सीढ़ियों से उतरते समय हल्का-सा धक्का लगा दिया। वह गिरने लगा तो सहसा उसके मुंह से धक्का देने वाले के प्रति अपशब्द निकल पड़े। बस, गोपाल ने बताया कि "ये अपशब्द जिस भाषा में हैं, वही उसकी मातृभाषा है।" उस विद्वान् ने यह बात स्वीकार की और गोपाल की बुद्धि का लोहा माना । इसीलिए भारतीय संस्कृति के उद्गाता कहते हैं-- 'किमज्ञयं हि धीमताम्' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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