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________________ सौम्य और विनीत की बुद्धि स्थिर : १ ६५ कौन-सा अधर्म ? वह अहंकार, अविनय, क्रोध, मोह, स्वार्थ आदि प्रचण्ड विकारों से दूर रहता है, इस कारण उसकी बुद्धि यह जान लेती है कि मुझे किस कार्य में प्रवृत्त होना है, और किस कार्य से निवृत्त रहना है, दूर रहना है। साथ ही अपने कर्तव्यअकर्तव्य एवं हिताहित का भी भान रहता है। वह कभी अहंकार के नशे में डूबा नहीं रहता और न ही द्वष और रोष की आग में जलता है। सात्त्विक बुद्धि स्थिर और प्रकाश से ओतप्रोत रहती है । वह शुद्धबुद्धि होती है। चंचलबुद्धि से बनता हुआ कार्य बिगड़ जाता है, जबकि सद्बुद्धि या स्थिरबुद्धि से बिगड़ा हुआ एवं बिगड़ता हुआ कार्य सुधर जाता है। एक सेठ का लड़का एक जुआरी लड़के की सोहबत से पक्का जुआरी बन गया। उसे जुए का दुर्व्यसन इतनी बुरी तरह लग गया था कि एक दिन भी जुआ खेले बिना नहीं रह सकता था। उसने जुए में अपने पिता की बहुत-सी सम्पत्ति फूंक दी। सेठ चाहता था कि किसी तरह दोनों की दोस्ती टूट जाए तो अच्छा। उसने अपनी ओर से लड़के को समझाने-बुझाने का पूरा प्रयत्न किया, लेकिन सब व्यर्थ । आखिर असफल और बेचैन सेठ वहाँ के दीवान के पास पहुँचा और अपनी सारी व्यथा-कथा सुनाई। दीबान सात्त्विक बुद्धि वाला और सूझबूझ का धनी व्यक्ति था। दीवान ने सेठ से कहा-"आप चिन्ता न करिये। मैं आज आपकी दूकान पर आकर उन दोनों की मित्रता तुड़वा दूंगा । आप एक काम करिये। आज मैं न आ जाऊँ, तब तक आप उन दोनों मित्रों को दूकान पर बिठाये रखिये।" निश्चित समय पर दीवानजी दूकान पर पहुँच गये । वहाँ बैठे दोनों मित्रों में से एक को उन्होंने इशारे से अपने पास बुलाया और ओठ हिलाते हुए हाथों से ऐसी चेष्टाएँ की मानो कुछ कह रहे हों । यों करके दीवानजी झटपट चले गये। दोनों मित्र परस्पर मिले। सेठजी के लड़के से जुआरी लड़के ने पूछा- "दीवानजी तुम्हें क्या कह रहे थे ?" सेठ के लड़के ने कहा- "कुछ भी तो नहीं कहा। वे तो मेरे कान के पास मुंह लगाकर सिर्फ ओठ हिला रहे थे।" इस पर जुआरी मित्र ने कहा-"तू मुझसे बात छिपाता है । अवश्य ही दीवानजी ने तुझे कुछ कहा था। बस, आज से तुम्हारी और मेरी दोस्ती खत्म ! मैं ऐसा दुर्व्यवहार नहीं सह सकता।" आखिर दोनों की मित्रता टूट गई। दीवानजी की सात्त्विक बुद्धि ने काम कर दिया। सात्त्विक बुद्धि का धनी ही ऐसी अटपटी समस्याओं को नैतिक तरीकों से सुलझा सकता है। भारत के एक मूर्धन्य मनीषी ऐसी शुद्ध बुद्धि के विषय में कहते हैंश्रियः प्रसूते, विपदो रुणद्धि, यशांसि दुग्धे, मलिनं प्रमाष्टि । संस्कारशौचपरं पुनीते, शुद्धा हि बुद्धिः किल कामधेनु ॥ शुद्धबुद्धि वास्तव में कामधेनु है । वह लक्ष्मी को उत्पन्न करती है अथवा प्रत्येक कार्य की शोभा बढ़ा देती है, प्रत्येक कार्य में आने वाली विपत्तियों को रोक देती है, यशरूपी धवलदुग्ध देती है, यानी हर कार्य में यश प्राप्त कराती है । प्रत्येक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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