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________________ २२ आनन्द प्रवचन : भाग ६ मिलती है, तो उसे दूसरों से छीनने-झपटने, लूटने-खसोटने या चुराने की कोशिश करता है । या किसी की कोई वस्तु अपने पास गिरवी रखी हुई है तो उसे हड़पने का प्रयत्न करता है। अमानत धन को या धर्मादा रकम को हजम करने या संस्था के हिसाब में गोलमाल करके गबन करने के हथकण्डे करता है । किसी दूर के रिश्तेदार के मर जाने पर तिकड़मबाजी करके उसका निकट का उत्तराधिकारी बनकर उसकी धनराशि को स्वयं हथिया लेता है। ये और इस प्रकार के कई कारनामे लोभ के होते हैं, भला ऐसा लोभी क्या सुखी रह सकता है ? उसे तो पद-पद पर दुःख ही दुख है, मानसिक क्लेश होता है। इतनी सारी दौड़-धूप करने में उसे एड़ी से चोटी तक पसीना बहाना पड़ता है—अर्थ या किसी पदार्थ को पाने में । उसकी नींद हराम हो जाती है, सुख से वह खा-पी नहीं सकता, शान्ति से कहीं स्थिर होकर दो घड़ी प्रभु के ध्यान में बैठ नहीं सकता, आराम से सो नहीं सकता । क्या ये शारीरिक-मानसिक दुःख कम है ? इसीलिए नीतिकारों ने ठीक ही कहा है यद् दुर्गमटवीमटन्ति विकटं, कामन्ति देशान्तरम् । गाहन्ते गहनं समुद्रमतनुक्लेशां कृषि कुर्वते ॥ सेवन्ते कृपणं पति गजवटासंघट्टदुःसंचरम् । सर्पन्ति प्रधनं धनान्धितधियस्तल्लोभ-विस्फूजितम् ।। "धन में जिनकी बुद्धि अंधी हो गई है, ऐसे मनुष्य दुर्गम जंगलों में भटकते हैं, विकट देशान्तर में जाते हैं, अगाध समुद्र में गोते लगाते हैं, अपार श्रमसाध्य खेती करते हैं, कृपण स्वामी की सेवा करते हैं, जिसके यहाँ अनेक हाथियों की भीड़ से रास्ता चलना भी दुष्कर है, उस धनिक के पास जाते हैं। ये सब काम लोभ से प्रेरित होकर करते हैं।" अत: लोभ कितना दुःखदायी है। धनार्जन करने का लालच तो कष्टदायक है ही। इससे भी बढ़कर कष्टदायक है—प्राप्त धन की सुरक्षा करने, उसे न खाने, न खर्चने, और न ही किसी को देने-दिलाने का लोभ । लोभी व्यक्ति अपनी सारी शक्ति इनमें लगा देता है, सुख से खाना-पीना भी छोड़ देता है, कृपणता की आदत के कारण उसे तिजोरी में से धन निकालना बहुत ही बुरा लगता है। वह एकमात्र धन को जोड़ने एवं संग्रह करके रखने के लिए तनतोड़ परिश्रम करता है । जहाँ जरा-सा भी किसी ने कुछ दे दिया या खर्च कर दिया तो उसका पारा चढ़ जाता है, वह धन के लिए लड़ने-मरने को तैयार हो जाता है। पाश्चात्य विचारक जेनो (Zeno) ने लोभी मनुष्य का स्वरूप बताया है "The avaricious man is like the barren sandy ground of the desert which sucks in all the rain and dew with greediness, but yields no fruitful herbs or plants for the benefit of otbers.": लोभी मनुष्य रेगिस्तान के बंजर रेतीले मैदान की तरह होता है, जो लालच Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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