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दुःख का मूल : लोभ
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कभी पूर्ण नहीं होगा । मैं असन्तुष्ट का असन्तुष्ट रहूँगा । मुझे तो इस राज्य की अपेक्षा प्रभु का राज्य चाहिए, जिसमें सभी सुख लबालब भरे हैं, इस धन से तो दुःख, चिन्ताएँ और भय ही बढ़ेंगे ।' यों कपिल चिन्तन की गहराई में डूब गया ।
राजा ने जब स्वयं पास जाकर पूछा - " कहो भूदेव ! आपने क्या माँगने को सोचा है ?"
कपिल ने कहा – “बस, मुझे कुछ नहीं चाहिए, मुझे जो चाहिए था, वह सब मिल गया है ।" राजा आश्चर्यचकित होकर बोला - " मैंने तो आपको कुछ भी नहीं दिया, आपको कहाँ से क्या मिल गया ?"
कपिल ने अपनी चिन्तनकथा कह सुनाई । राजा ने हर्षित होकर कहा - "आप निःसंकोच होकर करोड़ स्वर्णमुद्राएँ माँगें, मैं अवश्य दूँगा ।" कपिल बोला – “मुझे आवश्यकता नहीं । मुझे तो सर्वसंग परित्याग करके लोभ - विजय करना है, जिससे मैं सर्वतोभावेन सन्तुष्ट होकर परमसुख प्राप्त कर सकूँ ।" यों कहकर कपिल वहाँ से चल पड़े, स्वयंबुद्ध होकर उन्होंने स्वतः मुनि जीवन अंगीकार कर लिया और छः महीने में केवलज्ञान प्राप्त कर लिया ।
कपिल की मनोवृत्ति में लाभ और लोभ के विषचक्र का कितना सुन्दर आलेखन है ? बस, यही रूप है लोभ का, जिसके चक्कर में आकर मनुष्य अपने आप को भूल जाता है । एक अँग्रेजी कहावत भी प्रसिद्ध है
"The more they get, the more they want.'
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जितना वे प्राप्त करते हैं, उतना ही वे चाहने लगते हैं । गर्मी के बुखार में प्यास की तरह लाभ में लोभ और अधिक बढ़ता जाता है । आज लगभग सारा ही संसार लोभ के चक्र में फँस रहा है। शायद ही कोई बचा हो। इसीलिए रामचरितमानस में कहा है
ज्ञानी तापस सूर कवि, कोविद गुन- आगार । afe की लोभ विडम्बना, कीन्ह न एहि संसार ॥
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जब मन में लोभ आता है, तो व्यक्ति उस वस्तु को लेने दौड़ता है, मन से रात-दिन उस वस्तु को पाने के प्लान बनाता है, उसी उधेड़बुन में रहता है, वचन से भी वह उसी चीज के बारे में पूछताछ करता है, काया से चेष्टाएँ भी लोभप्रेरित वस्तु को लेने की करता है । स्वप्न में भी उसे उसी वस्तु को लेने के विकल्प आते हैं । उसकी बुद्धि लोभ के कारण चंचल बनी रहती है । अपना सारा समय और सारी • शक्ति और श्रम वह लोभप्रेरित वस्तु को पाने में लगाता है । फिर जो व्यक्ति उसकी वस्तु की प्राप्ति में विघ्न डालता है, उससे लड़ने-झगड़ने और द्वेषवश उसे बदनाम करने, मारने-पीटने आदि में लग जाता है, जो उसे समझाते हैं, जो उसे ऐसा करने से रोकते हैं, उन्हें भी वह भला-बुरा कहता है । कोई चीज सहज में नहीं
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लोभ : दुःखों का मूल
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