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________________ दुःख का मूल : लोभ २३ के वश तमाम वर्षा और ओस चूस लेता है, किन्तु कोई भी फलवान जड़ियाँ या पौधे दूसरों के फायदे के लिए पैदा नहीं करता । इसीलिए नीतिकार साफ-साफ कहते हैं अर्थानामर्जने दु:खं, अजितानां च रक्षणे । आये दुःखं, व्यये दुखं, धिग●ः कष्टसंश्रया ॥ धन और साधनों के अर्जन (प्राप्त) करने में दुःख है, फिर उपार्जित किये हुए धन की रक्षा करने में दुःख है, आय में दुःख है, व्यय में दुःख है । धिक्कार है ऐसे अर्थ को, जो इतने दुःखों का आश्रयस्थान है। आप जानते हैं कि धन या संसार का कोई भी पदार्थ अपने आप में दुःख या सुख देने वाला नहीं है । उसका उपयोग करने वाले की बुद्धि पर निर्भर है कि वह धन या साधनों का उपयोग करता है या नहीं ? करता है तो परोपकार में करता है या अपने स्वार्थ के लिए करता है ? जब मनुष्य लोभ से प्रेरित होकर धन का अत्यधिक संग्रह करता है, उसमें से खर्च करने या दान देने में उसका जी कटता है, उसके मन को गहरी चोट लगती है, धन के चले जाने से या खर्च करने से । तब अर्थ दुःख का कारण बनता है। इसलिए कहना चाहिए कि धन दुःख का कारण नहीं, धन का लोभ दुःख का कारण है । लोभ चाहे धन के प्रति हो या किसी भी सांसारिक वस्तु के प्रति, वह दुःख का कारण है। इसीलिए एक आचार्य ने कहा है सुमहान्त्यपि शास्त्राणि धारयन्तो बहुश्रु ता। छेत्तारः संशयानां च क्लिश्यन्ते लोभमोहिताः ॥ बड़े-बड़े शास्त्रों के ज्ञाता, बहुश्रुत एवं संशयों को मिटाने वाले पण्डित भी लोभ से मूढ़ बने हुए क्लेश पाते हैं। लोभ अपने आप में दुःख का मूल है। उसे जो भी पकड़ेगा, दुःख ही पाएगा। फिर वह चाहे बड़े से बड़ा विद्वान, शास्त्रज्ञ या आचारवान् ही क्यों न हो, चाहे वह लोकसेवक, राष्ट्रसेवक या ग्रामसेवक ही क्यों न हो, भले ही वह सार्वजनिक संस्था का अध्यक्ष हो, नामी संस्था का मंत्री हो या और कोई उच्च पदाधिकारी हो; जब भी, जहाँ भी, जो भी लोभपिशाच से ग्रस्त होगा, वह अनेकों दुःख पाएगा । वे दुःख आधिभौतिक भी हो सकते हैं, आधिदैविक भी और आध्यात्मिक भी; परन्तु वह इन तीनों प्रकार के दुःखों से छुटकारा तब तक नहीं पा सकता, जब तक वह लोभ का पिण्ड न छोड़ दे । वह लोभ के वशीभूत होकर क्यों दुःख पाता है ? इसके उत्तर में एक विचारक कहते हैं लोभेन बुद्धिश्चलति, लोभो जनयते तृषाम । तृषार्तो दुःखमाप्नोति परोह च मानवः ॥ "लोभ से मनुष्य की बुद्धि चंचल हो जाती है। चंचल बुद्धि अनेक पापकर्म करने में तत्पर हो जाती है। फिर लोभ मनुष्य में धन की पिपासा या तृष्णा जगाता है। धन की प्यास से पीड़ित व्यक्ति यहाँ भी दुःख पाता है, परलोक में भी।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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