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________________ परमार्थ से अनभिज्ञ द्वारा कथन : विलाप ३६३ वैद्यजी का नौसिखिया चेला उनकी इन चेष्टाओं और झटपट पांच मिनट में पच्चीस रुपये बना लेने की वृत्ति देखकर मन ही मन सोचने लगा-"मैं भी तो ऐसा कर सकता हूँ। यहाँ रहते-रहते मैं दवाइयों के नाम, उनके गुण और उपयोग की विधि आदि जान गया हूँ, फिर यहाँ इतने कम वेतन में क्यों पड़ा रहूँ ? क्यों न इसी तरह खूब पैसे कमाऊँ ?” अतः दूसरे दिन से उसने वैद्यजी की नौकरी छोड़ दी। चौराहे पर एक कमरा लेकर उसमें कुछ दवाइयों की शीशियाँ लगा लीं। बाहर एक बोर्ड लगा दिया-'यहाँ प्रत्येक रोग का इलाज होता है।' रोगी आने लगे। दुनिया में रोगियों की कमी नहीं होती। वह नीमहकीम रोगियों को अपने अधूरे ज्ञान के आधार पर दवाइयाँ देता रहा, कभी किसी के दवा लग गई तो ठीक, न लगी तो उसके भाग्य। एक दिन एक बुढ़िया को लेकर उसके बेटे उस वैद्य के पास आये। बोले"वैद्यजी ! देखिये तो इस बुढ़िया को क्या हो गया है ? इसके गले में सूजन हो वैद्यजी को अपने गुरुजी द्वारा ऊँट का किया हुआ इलाज याद आया। उन्होंने दो चार पुस्तकें देखीं, बुढ़िया के लड़कों को विश्वास दिलाने के लिए उसकी नब्ज, चेहरा वगैरह टटोले। फिर बोले-"बहुत शीघ्र ही इलाज कर दूंगा, बुढ़िया बिलकुल स्वस्थ हो जाएगी, पच्चीस रुपये लगेंगे।" बुढ़िया के पुत्रों ने स्वीकार किया। अनाड़ी वैद्य ने झट लकड़ी का हथौड़ा उठाया और बुढ़िया के गले के नीचे हाथ रखकर ऊपर से दे मारा । बुढ़िया ने तो एक ही हथौड़े में आँखें फेर ली और वहीं दम तोड़ दिया । बुढ़िया के पुत्र यह कहते ही रहे कि 'यह क्या कर रहे हैं ? बुढ़िया को मार रहे हैं या इलाज कर रहे हैं ?" पर उसने किसी की एक न सुनी और बुढ़िया के मर जाने पर उसके घर वालों ने वैद्य को बहुत भला-बुरा कहा तो उसने कहा- “मरना-जीना किसी के हाथ की बात नहीं है, मैंने अपने गुरुजी द्वारा बताई हुई चिकित्सा की है। एक ऊंट का गला सूज गया था, तब गुरुजी ने यही चिकित्सा की थी ?" भला क्या उस बुढ़िया के पुत्र अब इस नीमहकीम पर कभी श्रद्धा कर सकते थे ? या इसकी फीस दे सकते थे? कदापि नहीं। वही हुआ, बुढ़िया मर गई। नीमहकीम की दुकान लोगों ने वहाँ से जबरन उठवा दी। उसे अपने शहर से भगा दिया। बेचारे की बड़ी दुर्गति हुई। कहने का मतलब है-अधूरी समझ के या अधकचरे पंडित स्वयं इस प्रकार का अन्धानुकरण करके गर्वस्फीत होकर दूसरों का अनर्थ कर डालते हैं। तत्त्वज्ञानी पढ़ने-सुनने मात्र से नहीं, प्रत्यक्ष तीव्र अनुभव से इसलिए अध्यात्म ज्ञान का उपदेश देने वाले प्रत्येक व्यक्ति को पढ़ने के साथ गुनना भी आवश्यक है । तैरने की कला केवल पुस्तकें पढ़ने से नहीं आती, उसके लिए प्रत्यक्ष अनुभव करना पड़ता है। इसी प्रकार वकालत, डाक्टरी, वैद्यक या Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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